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________________ और उनके साथ शिथिलाचारी, मठवासी नाममात्र के नग्न साधुओं की परम्परा चल पड़ी। कालान्तर में ये लोग मठों और मन्दिरों में निवास करने लगे, जागीरें रखने लगे, राजसभाओं में जाने लगे, किन्तु अपने आपको मूलसंघी ही प्रदर्शित करते रहे। यह भौतिकवादिता केवल जैनधर्म में ही नहीं थी, शैव आदि अन्य धर्मों में भी थी। ये प्रवृत्तियाँ स्थानीय न होकर सार्वदेशिक थीं। कालान्तर में दिगम्बर परम्परा में साधुओं में वस्त्रधारण की प्रथा भी प्रारम्भ हो गयी। ये वस्त्र धारण करके भी मुनि कहलाते थे तथा स्वयं को मूलसंघी कहते थे। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में 1. 1) पखण्डागम : पं. सुमतिवाई शहा सम्पादित, श्रुतभाण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण (शोलापुर, 1965 ई.), प्रस्तावना, पृ. 3। 2) जटासिंहनन्दी : वरांगचरित : प्रो. ए.एन. उपाध्ये सम्पादित (बम्बई, 1938), प्रस्तावना, पृ. 371 3) नाथूराम प्रेमी। जैन साहित्य और इतिहास : प्र. 447 और आगे। 4) 'जैन सन्देश' (शोधांक संख्या 23), पृ. 831 5) वही (संख्या 8), पृ. 281 और 300। 2. (अ) देवसेनसूरि : दर्शनसार : पं. नाथूराम प्रेमी सम्पादित (बम्बई, 1974 वि.), 24-28 । (ब) 'कलौ काले वने वासो वय॑ते मुनिसत्तमैः । स्थीयेत च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः ॥' --शिवकोटि भट्टारक : रत्नमाला : माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई के 21वें ग्रन्थ 'सिद्धान्तसारादि संग्रह' में प्रकाशित, पद्य सं. 22। 3. देखिए (अ) मकरा ताम्रपत्र : वी.एल. राइस द्वारा मूल तथा अनुवाद सहित प्रकाशित, इण्डियन एण्टिक्वेरी, भाग 1 (1872 ई.), पृ. 363-65 1 (ब) म. म. विश्वेश्वरनाथ रेऊ : जैनाचार्य और बादशाह मोहम्मद शाह : वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ (सागर, 2486 वीर नि.), पृ. 1981 4. चन्द्रसुकीर्ति पट्टोधर राजसुकीर्ति राया मनरंजी। वनारसि मध्य विवादकरी धरी मान मिथ्यात को मन कुं भंजी । पालखी छत्र सुखासन राजित भ्राजित दुर्जन मन के गंजी। हीरजी ब्रह्म के साहिब सद्गुरु नाम लिये भवपातक भंजी ॥ -श्री मा. स. महाजन, नागपुर के संग्रह की हस्तलिखित प्रति संख्या 49, पद्य 218 । 5. 1) कुन्दकुन्द : षट्प्राभृत, सं. टीका-श्रुतसागर सूरि, पं. पन्नालाल सोनी सम्पादित (बम्बई, 1977 वि.स.), पृ. 21 1 2) योगीन्द्रदेव : परमात्मप्रकाश : ब्रह्मदेवकृत सं. टीका, पं. मनोहरलाल शास्त्री द्वारा सम्पादित, (बम्बई, 1972 वि.), गाथा 216 की टीका, पृ. 231-32 1 3) "संयम-श्रुत-प्रतिसेवना-तीर्थ-लिंग-लेश्योपपादस्थान-विकल्पतः साध्याः ।” देखिए-श्रुतसागर सूरि : तत्त्वार्थवृत्तिः (काशी, 1949), अध्याय 9, सूत्र 47 और उसकी व्याख्या, पृ. 504-51 4) महर्षि वासुपूज्य (सं. 1478), दानशासन, टीका-अनुवादक-वर्द्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री (शोलापुर, 1941 ई.), का यह पद्यदुग्धश्रीघनतक्राज्यशाकभक्ष्यासनादिकम् । नवीनमव्ययं दद्यात्पात्राय कटमम्वरम् ॥ 5) जैनहितैषी, भाग 6, अंक 7-8 | धार्मिक जीवन :: 215 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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