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________________ उसके सामयिक या दैनिक दर्शन का विधान किया जाने लगा। यहीं से मूर्ति-पूजा की प्रथा को जन्म मिला। इस दृष्टि से, इतने से उद्देश्य से ही यदि मूर्ति-पूजा की स्वीकृति मानें तो कहना होगा कि आज संसार में कदाचित् ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जो मूर्तिपूजक न हो। परन्तु मानव ने जब से भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टियों से अपनी सीमाएँ संकीर्ण की या ऐसी सीमाओं का अनुभव किया, तब से उसकी मूर्तिपूजा ने भी देश, काल तथा परिस्थिति के अनुकूल रूप-रूपान्तर धारण किये। कहीं तदाकार मूर्तिरूप प्रतीक की पूजा प्रारम्भ हुई तो कहीं अतदाकार मूर्तिरूप की। जहाँ तक भारत का प्रश्न है, यहाँ तदाकार मूर्तिरूप प्रतीक को ही अधिकतर पूजा प्राप्त हुई। अब से पचास शताब्दी पूर्व यहाँ मूर्ति-पूजा प्रचलित थी। उससे पचीस शताब्दी पश्चात् यहाँ उसकी जड़ें इतनी गहरी जम चुकी थीं कि महात्मा बुद्ध-जैसे अद्भुत प्रभावशाली व्यक्ति के आदेश का उल्लंघन करके भी मनुष्य ने मूर्ति-पूजा चालू रखी। मूर्तियों के पात्र अब मूर्ति के पात्रों के रूप में भारत में-शिव, विष्णु, ऋषभ, पार्श्वनाथ, महावीर और बुद्ध जैसी महान् विभूतियाँ स्वीकृत की जाने लगीं। किन्तु कदाचित् जनसंख्या के विस्तार एवं रुचिवैभिन्न्य के फलस्वरूप मूर्ति के पात्रों में वृद्धि हो चली। प्राकृतिक शक्तियों को, जिन्हें अब तक शब्दात्मक या अतदाकार प्रतीक ही प्राप्त थे, अब मूर्तरूप प्रतीक प्राप्त होने लगे, यद्यपि ऐसी मूर्तियों को वह मान्यता कभी नहीं मिली जो पूर्व-स्वीकृत शिव आदि की मूर्तियों को प्राप्त हुई और फिर इन पात्रों की संख्या इतनी अधिक बढ़ी कि उनके प्रति पूजा की भावना अपेक्षाकृत निर्बल हो गयी। फलस्वरूप उन्हें वह अलंकरण और स्थान भी प्राप्त न हो सका जो पूर्व स्वीकृत मूर्तियों को हुआ। यही कारण है कि अन्य मूर्तियों को पूर्व-स्वीकृत मूर्तियों के परिचारक या पूरक के रूप में प्रस्तुत किया गया। जब एक मूर्ति के लिए मन्दिर का निर्माण किया गया तब अन्य मूर्तियों को या तो मन्दिर के सज्जागत तत्त्वों में स्थान दिया गया या मुख्य-मूर्ति के समीप कहीं। जैनधर्म में प्रतीक प्रतीक का अस्तित्व जैनधर्म में आदिकाल से रहा है। शास्त्रीय विधानों के अनुसार कुछ मूर्तियाँ और मन्दिर तो ऐसे हैं जो केवल प्रकृति की देन हैं, उनका 1. 'कृत्याकृत्रिमचारुचैत्यनिलयान् नित्यं त्रिलोकीगतान् । वन्दे भावनव्यंतरान् युतिवगन स्वर्गामरावासगाम् ॥' - अकृत्रिम चैत्यालयों के अर्घ : वृहज्जिनवाणी संग्रह, पृ. 105 । मूर्तिकला :: 191 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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