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3. संगीत-मण्डली : देवगढ़ में संगीत-मण्डलियों के अनेक कलापूर्ण अंकन प्राप्त होते हैं, जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि वहाँ का समाज संगीत का केवल रसिक ही नहीं था, प्रत्युत उसमें प्रशिक्षित भी था तथा वहाँ की पाठशालाओं में संगीत-शिक्षा का प्रबन्ध भी रहा होगा।
म. सं. वारह के अर्धमण्डप', जैन चहारदीवारी में जड़े हुए शिलाफलकों पर समृद्ध संगीत-मण्डलियों के अंकन अपनी पूर्णता एवं कलागत सूक्ष्मता की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए प्रतीत होते हैं। इनसे स्पष्ट है कि यहाँ संगीत की बड़ी मण्डलियाँ थीं
और समय-समय पर अनेक आयोजनों में उनके मनोरंजक कार्यक्रम हुआ करते थे। संगीत-मण्डलियों के और भी बहुत से दृश्य देवगढ़ में अंकित मिलते हैं।
उक्त सभी मण्डलियों में उत्कीर्ण मूर्तियाँ आकार में लघु होने पर भी स्पष्ट और आकर्षक बन पड़ी हैं। उनके अंग-प्रत्यंगों के सार्थक उभारों तथा सूक्ष्म रेखांकनों के निरीक्षण से धारणा बनती है कि यह कला नवमी शती के बाद की नहीं हो सकती, क्योंकि इसमें गुप्तकालीन कला के अनेक लक्षण और परम्पराएँ अवशिष्ट हैं, जबकि चन्देलकालीन कला का प्रारम्भिक रूप भी उनमें दृष्टिगत नहीं होता।
11. प्रतीक
प्रतीक की स्वीकृति
मानव-संस्कृति में प्रतीक की स्वीकृति उतनी ही प्राचीन है जितनी मानव की ज्ञान-चेतना। प्रत्यक्ष वस्तु को शब्दों द्वारा प्रकट करने की प्रथम चेष्टा ने ही प्रतीक की मान्यता का सूत्रपात किया।
प्रतीक-विकास
समय के साथ प्रतीक का भी विस्तार होता गया और वह अब शब्दों तक ही सीमित न रह गया। शब्दों से अधिक सरल और संक्षिप्त प्रतीक दूसरा नहीं, परन्तु कभी-कभी अस्पष्ट या अदृश्य वस्तुओं का सर्वसाधारण को बोध कराने में शब्द असफल भी हो जाते हैं, ऐसी स्थिति में किसी वस्तु को अभीष्ट वस्तु का प्रतीक माना जाने लगा। एक वस्तु के प्रतीक के रूप में दूसरी वस्तु की ही स्वीकृति अपने आप में एक बहुत बड़ी घटना थी। प्रतीकात्मक वस्तु ही आगे चलकर दो रूपों में परिणत हुई। उसका प्रथम रूप था-अतदाकार, जिसे हम यथार्थ शब्दों में ‘अनगढ़'
1 दे चित्र सं. 118 |
-निन सं. 57 और 109।
मूर्तिकला :: 189
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