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________________ 5. कुलपति के रूप में आचार्य : एक शिलाफलक', (1' 10" x 5' 3") और भी अधिक उल्लेखनीय है। इसपर एक पाठशाला का अनुपम दृश्य अंकित है, जिसके अन्तर्गत एक आचार्य अपने विशाल परिकर के साथ अंकित हुए हैं। इस शिलाफलक में दो पंक्तियाँ हैं। नीचे की पंक्ति में सर्वप्रथम (बायें से दायें) चार कमण्डलु रखे हुए दिखाये गये हैं, जिनके अधिकारी साधु ऊपर की पंक्ति में अध्ययनरत हैं। तत्पश्चात् एक स्तम्भ के अन्तर से चार आर्यिकाएँ और श्राविका हाथ जोड़े हुए विनय से झुकी खड़ी हैं। आर्यिकाओं के सामने उनके कमण्डलु रखे हैं तथा बाजू में पीछियाँ दबी हैं। श्राविका के हाथ में कमलपुष्प-जैसी कोई वस्तु है। फिर दो स्तम्भों के मध्य एक टूटदार मेज रखी है जिसके दोनों ओर एक-एक कमण्डलु रखा है। इनमें से एक कमण्डलु के अधिकारी साधु तो ऊपर की पंक्ति में बैठे वितर्क कर रहे हैं परन्तु दूसरे के अधिकारी अनुपस्थित हैं। इसके पश्चात् पुनः पूर्व की भाँति एक श्राविका हाथ में नारियल-जैसा कुछ लिये हुए एवं चार आर्यिकाएँ पूर्ववत् किन्तु कुछ अधिक झुकी हुई अंकित हैं। इन सभी श्राविकाओं तथा आर्यिकाओं के शारीरिक एवं भावात्मक अंकन में कलाकार अत्यन्त सफल हुआ है। 'चतुर्विंशति पट्टों' का अंकन करनेवाले कुछ कलाकारों की भाँति उसने प्रमाद या अकुशलता का परिचय नहीं दिया है। आर्यिकाओं के अनन्तर एक स्तम्भ के अन्तर से पुनः चार कमण्डलु रखे हैं, जिनके अधिकारी साधु ऊपर की पंक्ति में अध्ययनरत हैं। ऊपर की पंक्ति में अंकित सभी आकृतियों के मस्तक तथा कुछ के हाथ खण्डित हैं। मध्य में एक हृष्ट-पुष्ट आचार्य बायें हाथ में पुस्तक लिये हुए बैठे हैं तथा दायें हाथ की सामने खुली हुई हथेली (वरद मुद्रा में) उनकी जाँघ पर रखी है। उनके दायें पुस्तकधारी उपाध्याय बैठे हैं जिनका दायाँ हाथ वितर्क मुद्रा में है। इनका आचार्य की ओर किंचित् मुड़कर बैठना और उनकी आकृति का आचार्य की आकृति से अपेक्षाकृत छोटी होना, इनके विनयशील होने की सूचना देता है। इनके दायें चार साधु इन्हीं की ओर मुख किये हुए और वायें हाथ में पुस्तक लिये बैठे हैं। उनके पीछे उनकी पीछियाँ टिकी हुई दिखती हैं। इन चारों के दायें हाथ खण्डित हैं। आचार्य की बायीं ओर भी ठीक यही दृश्य अंकित है, परन्तु उसमें दो उपाध्यायों की पीछियाँ अदृश्य हैं, जो एक समस्या है। 6. पाठशालाओं के अन्य अंकन : पाठशालाओं के और भी अंकन यहाँ 1. मं. सं. 4 के भीतर उत्तरी भित्ति में जड़ा हुआ। 2. दे.-चित्र सं. 791 3. देवगढ़ के अन्य पाठशाला दृश्यों के लिए देखिए--द्वितीय कोट के प्रवेश-द्वार का सिरदल, मं.सं. एक, चार, तथा स्तम्भ 3, 11 आदि । मूर्तिकला :: 175 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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