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________________ लगता है ।' गुप्तकाल के द्वार - स्तम्भों पर गंगा-यमुना की मूर्तियाँ बनाने की प्रथा रूढ़ - सी हो गयी थी | 2 गंगा-यमुना दो धाराओं में बहती हुई उदयगिरि, एरण प्रभृति में दिखाई गयी हैं और अन्त में उनका विलय समुद्र में हुआ है । गुप्तकाल में यह भावना जाग्रत हुई थी कि अन्तर्वेदि पर जिसका अधिकार होगा, वही 'एकराट्र' हो सकता है। अतः गंगा और यमुना की मूर्तियाँ वास्तुकला में राष्ट्रीय चिह्न बन गयी थीं । गुप्तकालीन कतिपय प्राचीन मन्दिरों तथा उदयगिरि, साँची, तिगवाँ आदि और देवगढ़ के ही दशावतार मन्दिर में गंगा-यमुना के अंकन प्रवेश द्वार के सिरदल के किनारों या द्वारपक्षों के ऊपरी भाग पर हुए हैं । देवगढ़ के दशावतार मन्दिर और जैन मन्दिर संख्या 4, 5, 11, 12, 28 और 31 में उनके अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, अनोखे और प्रभावोत्पादक चित्रण हैं। उनके केशपाश और मुखाकृतियाँ बहुत सुन्दर हैं । जैन स्थापत्य में भी इन प्रतीकात्मक देवियों का समावेश प्रारम्भ से ही हुआ है, जैसा कि हम देवगढ़, चाँदपुर, दूधई, खजुराहो, पतियानदाई ( पतौरा, सतना ), भूमरा, नचना, मढ़ई, पाली और बानपुर आदि में देखते हैं । देवगढ़ की जैन कला में गंगा-यमुना के अंकन - मं. सं. 4, 5 ( 2 बार ), 9, 11 ( 2 बार ), 15 ( 2 बार ), 16, 18 (2 बार ), 19, 20, 23, 24, 28, 31 तथा मढ़िया संख्या 4 में आकर्षक ढंग से हुए हैं। इसी प्रकार नाग और नागी के अंकन यहाँ के मं. सं. 12, 15, 18, 19 और 31 में प्रभावोत्पादक बन पड़े हैं । नाग-नागियों का अंकन प्रवेश द्वार की पूरी पट्टिकाओं पर भी कहीं-कहीं मिलता है। 1 मथुरा में प्राचीन काल से ही नाग- नागियों के अंकन आकर्षक ढंग से हुए हैं। वहाँ इनकी अनेक मूर्तियाँ विभिन्न रूपों में तो मिली ही हैं, ब्रज में इनके स्वतन्त्र मन्दिर बनाने का भी प्रचलन था । (इ) अन्य देव - देवियाँ यक्ष-यक्षियों, विद्या- देवियों, सरस्वती, लक्ष्मी, नवग्रह, गंगा-यमुना और नाग- नागी की मूर्तियों के अतिरिक्त भी देवगढ़ में देव - देवियों की ही कुछ ऐसी मूर्तियाँ विद्यमान 1. आनन्दकुमार कुमारस्वामी : यक्षाज : भाग एक ( वाशिंगटन, 1928 ई.) 2. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : म.प्र. की कला का ऐतिहासिक परिशीलन : मध्यप्रदेश सन्देश (दि. 26 जनवरी, 1963 ई.), पृ. 16 1 3. दे. - चित्र सं. 6, 18, 32, 35 और 117। 4. मथुरा में एक ऐसी द्वार - शाखा प्राप्त हुई है जिस पर झील में स्नान करते हुए नाग- नागी आलिखित हैं । दे. - प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी मथुरा कला में नाग त्रिपथगा (जुलाई, 1962 ई.), पृ. 65 से पूर्व मुद्रित चित्र | 5. वही, पृ. 63-66 । Jain Education International For Private & Personal Use Only मूर्तिकला : 165 www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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