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________________ मानव-जन्म से ही सम्भव है, देवजन्म से नहीं । अतः मानव को देवों से अधिक महत्त्व मिलता है। पंच परमेष्ठी देव नहीं, मानव ही होते हैं। अतः देव-देवियों की मूर्तियाँ बनने तो अवश्य लगीं पर तीर्थंकरों के समान न तो उनकी पूजा ही होती थी और न मन्दिर में उन्हें मुख्य स्थान प्राप्त होता था। उन्हें तीर्थंकरों के चमरधारी, आराधक एवं सेवक आदि के रूप में स्थान दिया जाता था, जैसा कि अब तक होता आ रहा है। हिन्दू-देवताओं की भाँति अधिकांश जैन-देवताओं को भी मन्दिर के प्रवेश-द्वार आदि विभिन्न स्थानों पर भी अंकित किया जाने लगा। भट्टारकों की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई आडम्बरप्रियता और भौतिकता के प्रति आकर्षण के फलस्वरूप अनेक ऐसे देव-देवियों की कल्पना की गयी, जिनका जैन धर्म के प्रारम्भिक और सर्वमान्य आचार्यों ने कोई उल्लेख नहीं किया। ऐसे देव-देवियों में यक्ष तथा यक्षियों अर्थात् तीर्थंकर के शासनदेव और शासन-देवियों का विशेष महत्त्व है। कुछ हिन्दू देव-देवियों का जैनीकरण भी हुआ जिनमें सच्चिया माता आदि प्रमुख हैं। भट्टारकों में से अधिकांश मन्त्र-तन्त्र आदि पर विश्वास रखते थे, जिनकी सिद्धि के लिए विभिन्न देवियों की उपासना अनिवार्य बतायी गयी। फलत देवियों की मूर्तियों का महत्त्व क्रमशः बढ़ता ही गया। अब ये देवियाँ मन्दिर के प्रवेश-द्वार से आगे बढ़ती-बढ़ती गर्भालय तक जा पहुँची। फिर उन्हें तीर्थंकर के पादमूल में ही स्थान मिल गया। इस स्थिति में इनकी मूर्ति तीर्थंकर की मूर्ति की अपेक्षा काफी छोटी, कदाचित् पचासवाँ भाग होती थी। परन्तु देवियों की शक्ति पर विश्वास और कदाचित् सांस्कृतिक, सामाजिक एवं धार्मिक कमियों तथा दबावों के फलस्वरूप उनका महत्त्व इतना बढ़ा कि भले ही वे तीर्थंकर का स्थान न ले सकीं, पर इनकी मूर्ति अवश्य ही तीर्थंकर की मूर्ति से पचास-गुनी तक बड़ी बनने लगी। सामान्य लक्षण-अव हम इन देव-देवियों की मूर्तियों के सामान्य लक्षणों पर दृष्टिपात करेंगे। इन मूर्तियों के 'मूर्ति-विज्ञान' सम्बन्धी अध्ययन से ज्ञात होता है कि उनके विकास में तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ प्रमुख कारण 1. (1) समन्तभद्र : रत्नकरण्ड-श्रावकाचार, जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित, पद्य 39-41 | (2) पं. दौलतराम छहढाला (सोनगढ़, 2017 वि.), पृ. 117 और 175। (3) पं. हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री : जैनधर्मामृत (काशी 1960 ई.), पृ. 3151 2. अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इनके लक्षणों आदि के लिए दे.-द्रव्यसंग्रह, गाथा 50-541 3. इन्द्रादिक के द्वारा वन्दनीय परमपद में स्थित अरिहन्त आदि महापुरुष। दे.-वही, पृ. 57 तथा रतनकरण्ड-श्रावकाचार, 6-8 । 4. डॉ. प्रेमसागर जैन : जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि (काशी, 1963 ई.), पृ. 169-1711 मूर्तिकला :: 143 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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