SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के बीच 2.5 इंच का अन्तर छोड़ा गया है। इस द्विमूर्तिका के निर्माण में कलाकार के सामने एक विकट समस्या रही होगी। एक ओर की मूर्ति का निर्माण हो चुकने पर जब उसने उसी शिला के पृष्ठभाग में दूसरी मूर्ति के अंकन का कार्य प्रारम्भ किया होगा, तब पहली मूर्ति को पत्थर की छिलाई की चोट आदि से सम्भावित टूट-फूट से बचा सकना अत्यत बुद्धिसाध्य रहा होगा। इस प्रकार की मूर्तियों का अंकन ईसवी पूर्व प्रथम शती से मथुरा में होने लगा था, किन्तु अन्यत्र ऐसी द्विमूर्तिकाएँ, कदाचित् देवगढ़ से बाद की, अत्यल्प मात्रा में ही मिलती हैं। 2. द्विमूर्तिकाएँ और त्रिमूर्तिकाएँ : एक ही शिलाफलक पर, एक ही ओर एक-दूसरे के पार्श्व में दो मूर्तियों' या तीन मूर्तियों को उत्कीर्ण करने की परम्परा भी देवगढ़ में रही है। 3. सर्वतोभद्रिकाएँ : सर्वतोभद्रिकाएँ प्रायः स्तम्भों या उनके खण्डित शीर्षों पर ही प्राप्त होती हैं। (द) चतुर्विंशति पट्ट __कुछ शिलाफलकों पर चौबीसियों' (चतुर्विंशति-पट्टों) का निर्माण भी, स्वतन्त्र रूप में और मूल नायक के परिवार के रूप में हुआ है। कला की दृष्टि से मं. सं. 12 के महामण्डप में स्थित कुछ चतुर्विंशति पट्ट (चित्र 64) विशेष उल्लेखनीय हैं। 1. दे... मं.सं. एक, दो, साह, छब्बीस, जैन चहारदीवारी, साहू जैन संग्रहालय तथा मं. सं. 12 के अंगशिखर में जड़ी हुई मूर्तियां (चित्र सं. 35)। ५. दे. --मं. सं. एक, दो, वारह का महामण्डप, अट्ठाईस का अंगशिखर एवं जैन चहारदीवारी आदि । तथा चित्र सं. 1, 76, 75, 20, 32 । अट्ठाईसवें मन्दिर के अंगशिखर में निर्मित देवकुलिका में जो त्रि-मूर्तिका जड़ी है-उसमें उसके दायें सप्त फणावलिसहित पार्श्वनाथ और वायें पंच फणावलि सहित सुपार्श्वनाथ कायोत्सर्गासन में दर्शित हैं, जबकि मध्य की मूर्ति के टूटकर गिर जाने से उसके स्थान पर एक अन्य पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा जड़ दी गयी है। दे.-चित्र सं. 42 । 3. इस प्रकार की 27 मूर्तियाँ जैन चहारदीवारी पर एक-दूसरे से बहुत अन्तर पर स्थापित हैं। दे.--चित्र सं. 471 विभिन्न मानस्तम्भों पर भी इसी प्रकार की मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं। दे.--चित्र सं. 43-45 तथा 48 । 1. म.सं. 4, 12, 25, 26, 29 एवं जैन चहारदीवारी और जैन धर्मशाला में अनेक चतुर्विंशति-पट्ट देखे जा सकते हैं। चौवीसी के लिए दे.-चित्र सं. 64, 65 और 75। 5. द.-- साहू जैन संग्रहालय में स्थापित चतुर्विशति-पट्ट। 6. दे -- चित्र सं. 61, 65 एवं 75 । मूर्तिकला :: 141 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy