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________________ की भाँति पीछे न होकर आसन के रूप में नीचे है। मूर्ति के दायें सर्प की पूँछ दीखती है, फिर छह कुण्डलियाँ लगाकर वह मूर्ति के पीछे से ऊपर पहुँच जाता है और अपने सात फणों की अवलि फैलाकर तीर्थंकर को छाया प्रदान करता है। सर्प की कुण्डली का विस्तार यहाँ तक बढ़ा कि वह तीर्थंकर के आसन में ही समाप्त न होकर पृष्ठभाग में तकिया के रूप में भी दिखायी जाने लगी। इस प्रकार की अनेक मूर्तियाँ विभिन्न मन्दिरों एवं जैन चहारदीवारी में जड़ी हुई हैं। मन्दिर संख्या छह में और बारह के महामण्डप में कुछ ऐसी मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं जिनमें मूर्ति के अनुपात में फणावलि काफी बड़ी अतः भार-स्वरूप मालूम पड़ती है। 2. सुमतिनाथ : फणावलि का अंकन केवल पार्श्वनाथ के साथ ही सीमित नहीं रहा बल्कि सुमतिनाथ के साथ भी उसका अंकन हुआ है। इस प्रकार की एक सुन्दर मूर्ति जैन-चहारदीवारी में (मं. सं. सात के पश्चिम में) जड़ी हुई है। इसमें सुमतिनाथ का चिह्न 'चकवा' सुस्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। 3. पार्श्वनाथ : पादपीठ के ऊपर सर्प : मन्दिर संख्या छह में पार्श्वनाथ की एक ऐसी भी मूर्ति विद्यमान है जिस पर सर्प का आलेखन चिह्न, आसन, तकिया या मस्तकाच्छादन के रूप में न होकर पादपीठ के ऊपर मूर्ति के पैरों के दोनों ओर दो स्वतन्त्र सर्पो के रूप में हुआ है। वहाँ सर्प अपनी विकराल कुण्डली लगाये हुए आलिखित हैं। (स) द्विमूर्तिकाएँ, त्रिमूर्तिकाएँ और सर्वतोभद्रिकाएँ देवगढ़ में पर्याप्त मात्रा में द्विमूर्तिकाएँ, त्रिमूर्तिकाएँ और सर्वतोभद्रिकाएँ आदि भी निर्मित हुईं। ... 1. मन्दिर संख्या 13 की द्विमूर्तिका : मन्दिर संख्या 13 के मण्डप में स्थित एक द्विमूर्तिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 7 फुट 7 इंच x 2 फुट 2 इंच के एक शिलाफलक के एक ओर 5 फुट 6 इंच ऊँची तथा उसके ठीक पीछे (दूसरी ओर) 6 फुट ऊँची कायोत्सर्ग मूर्तियाँ निर्मित हुई हैं। दोनों मूर्तियों के पृष्ठ भागों 1. दे.-जैन चहारदीवारी में जड़ी हुई एवं मं. सं. 12 के महामण्डप में स्थित मूर्तियाँ तथा चित्र सं. 69, 70। 2. तुलना कीजिए-तेरापुर (महाराष्ट्र) की गुफा में स्थित पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग मूर्ति से। इसके चित्र और विवरण के लिए दे.-डॉ.ही.ला. जैन : भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान (भोपाल, 1962), पृ. 312, फलक 24 | 3. दे.-चित्र सं. 69, 701 4. दे.-चित्र सं. 561 5. दे.-चित्र सं. 551 140 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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