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________________ हुई यह महान् मूर्ति देवगढ़ की सुन्दरतम मूर्तियों में से एक है। इसमें एक ओर गुप्तकालीन कला की परम्परा का निर्वाह हुआ है और दूसरी ओर पूर्व मध्यकालीन साज-सज्जा के लक्षण दृष्टिगत होते हैं । मन्दिर संख्या 15 के मूलनायक देवगढ़ की सर्वश्रेष्ठ मूर्तियों में से एक पन्द्रहवें मन्दिर के गर्भगृह में मूलनायक के रूप में विद्यमान है ।' 5 फुट 1 इंच x 2 फुट 11 इंच के शिलाफलक पर निर्मित 2 फुट 10 इंच ऊँची और 1 फुट 7 इंच चौड़ी नेमिनाथ' की यह पद्मासन प्रतिमा अनेक दृष्टियों से उल्लेखनीय है । इस मूर्ति में लावण्य, प्रसाद, अनुकम्पा आदि सद्गुण उतने ही सुस्पष्ट हैं जितने ध्यान और विरक्ति के भाव । ज्ञान, ध्यान और लोक-कल्याण की भावना इस मूर्ति के अंग-अंग से फूट रही है । इस मूर्ति की सज्जा, परिकर और इन्द्र आदि बोलते-से प्रतीत होते हैं तथा मूर्ति की सौम्यता और मनोज्ञता में अनन्त - शान्ति के दर्शन होते हैं। इसके भामण्डल के चारों ओर अग्नि-शिखा का अंकन 'ध्यान- अगनि कर कर्म-कलंक सबै दहै' - का स्मरण दिलाता है । निस्सन्देह यह प्रतिमा भी गुप्तकाल की कलागत परम्पराओं पर आश्रित है, इसका स्पष्ट प्रमाण सारनाथ में अवस्थित गुप्तकाल की बुद्ध प्रतिमा से इसकी समानता है । साँची के मन्दिर संख्या 45 में स्थित बुद्ध - प्रतिमा (चौथी शती ई.) की प्रभावली का स्मरण प्रस्तुत प्रतिमा की प्रभावली को देखकर सहज ही हो आता है I इसी प्रकार की गुप्तकालीन दो पद्मासन प्रतिमाएँ मथुरा में भी प्राप्त हुई हैं। वे इस मूर्ति से बहुत साम्य रखती हैं। 1 इस मूर्ति की तुलना मन्दिर संख्या 12 की उपर्युक्त विशालाकार मूर्ति से करेंगे : दोनों मूर्तियों की तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि गुप्तकाल के पश्चात् कला की एकता का स्थान अपने आपको स्वतन्त्र रूप में अभिव्यक्ति प्रदान करनेवाली प्रवृत्तियों की विविधता ने कैसे ले लिया । निस्सन्देह दोनों मूर्तियाँ आध्यात्मिकता और बाह्य संसार के प्रति उदासीनता का स्पष्ट भाव अभिव्यक्त करती 1. दे. - चित्र सं. 54 | 2. श्री नीरज जैन ने इस मूर्ति के यक्ष-यक्षी तथा मन्दिर में जीर्णोद्धार के समय के अभिलेख को कदाचित बारीकी से देखे बिना ही इसे सन्मति (महावीर) की लिखा है। तथा उसी नाम से इसका चित्र भी प्रकाशित कराया है। दे. - अनेकान्त, वर्ष 17, किरण 4, पृ. 168 3. दे. - डॉ. क्लॉज ब्रून वही । 4. दे. - विंसेण्ट स्मिथ दी जैन स्तूप ऐण्ड अदर एण्टिक्विटीज़ ऑफ़ मथुरा ( इलाहाबाद, 1901), फलक 92 और 93 तथा लखनऊ संग्रहालय क्र. जे. 104 और जे. 1181 Jain Education International For Private & Personal Use Only मूर्तिकला :: 133 www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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