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________________ ( १८ ) (१३) साधु साध्वी आपणी नेश्राई चेला चेली करणा नहीं, आचार्य प्रवर्त्तिनीरी श्राई करणा. (१४) बड़ी दीक्षा, योगविधि आचार्य विना न करणी, आज्ञा दे तो करणी. (१५) जो कोई साधु साध्वी उलंठ होय आचार्यादिकने असमंजस बोले तो विणने आचार्य प्रवर्त्तिनीरा हुकुम विना गच्छ बाहिर काढणो नहीं. (१६) कोइ साधु पढ्यो होय तिने आचार्ये आचार्य नहीं तो कोई साधु साध्वी आचार्यादि पद देने बतलावणा नहीं. विना दिये मते न कहो. (१७) पूर्वे प्रतिक्रमण चैत्यवंदनादिक समाचारी लिखी हे वा समाचारी कोई साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका कहे तो भी आचार्यने पूछे बिना ओछी अधिक करणा नहीं करे सो विराधक है, तर्कवितर्क उसकी मानणा नहीं. उपाध्यायादिक पद दियो पद दियो होय तो कहणो, (१८) जो कोई साधु साध्वी संघ में कहे, आचार्य प्रवर्त्तिनी म्हांने भणावे नहीं, एसा कहे उसकुं अविनीत, विषयासक्त है, कपाई है, एसा जाणना. (१९) साधु साध्वी म्हारे भगवा पंडित राखो एसो श्रावक कने कहणो नहीं, आचार्य ने कहणो अने श्रावके पाठशाला मांडी होय तो वहाँ भगवारो अटके नहीं, साध्वी तो भगे नहीं अने परिणतवयवाली होय तो सर्वजन समक्ष पद लेणो चार साधने. (२०) जो कोई साधु साध्वी आचार्यादिक साधु साधव्यांरी निन्दा करे तो उनों कुं एकान्ते समझावा, न माने तो वांदरणा पूजा नहीं. (२१) जिस साधु साध्वी कुं गुरुए गच्छ बाहिर किया वो साधु साध्वी कोई तरसे वर्णवाद बोले तो उसका कह्या सत्य नहीं मानणा. (२२) जो आचार्यादिक तथा प्रवर्त्तिनी मूलगुण में खोट लगावे तथा अपनी मर्यादा प्रमाणे न चाले, समाचारी न पाले, उन आचार्यादिकको श्रद्धावान् साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका मिल समझावना, न माने तो दूर कर दूसरे योग्य आचार्यादिक थापन करना, जो मुलायजा पक्षपात रक्खेगा वो श्रद्धावंत अनन्तसंसारी होगा, गच्छ बिगडने का पाप उस माथे हे. (२३) अभी के काल में जलसंनिधि शौच्य वास्ते रहता है, वो जल दोयघडी दिन पेली वापरणा पीछे परठ देखा, पण घणा दिन चढ़े राखणा नहीं. उस जलसे वस्त्रादिक धोरणा नहीं. वो जल शौच्य विना दूसरे काममें न लगाना, लगावे तो उपवास १ दंड का पावेगा. (२४) साधु साधव्योने आपणे अर्थ पुस्तकादि श्रावक कनेसुं वेचाता लेवावरणा नहीं, लिखावणा नहीं, आपणा कर भंडार में तथा गृहस्थरे घरे मेलगा नहीं. एसेदी पात्रादिक न चाहे तो परठ देणा पण गृहस्थ घरे भंडारे न मेलणा, मेलताने श्रावक श्राविका जाण जाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002772
Book TitleKalpasutrartha Prabodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1933
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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