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________________ प्रथम परिच्छेद शाभता है ॥१०॥ दधि मन्थन करते समय मथानी चलाने से उत्पन्न मथानी में बँधी हुई छुद्र घण्टियों की आवाज से हर्षित सिर से मोर नाचते हैं ।।११॥ जहाँ समृद्ध पट्टण हैं । मठ और देव-विहार संघ के लिए हैं ॥१२॥ __घत्ता-जहाँ अति सुकुमार मैना पक्षी लताओं पर क्रीडा करते हैं। भौरे तालाब में गुन-गुनाते हैं । ( पिंजड़े में बन्द तोते ऐसे प्रतीत होते हैं ) मानो वे भयभीत होकर नीलाम्बर धारी हलधर को कह रहे हैं कि उन्हें निरापद स्थान में रखो जहाँ उन पर आक्रमण न हो सके, आक्रमण न करो, न कराओ ॥१-११।। [१-१२] ऋषभपुर-नगर-वर्णन जिस नगर में दंड छतरियों ( छातों ) में, भग्नता विधुर जनों में, मारपीट गन्ने के सार अंश में और मद हस्ति-वर्ग में ही था ( जन समुदाय में नहीं) ।।१।। वहाँ सिंह ही स्वच्छन्द दिखाई देते हैं । ( मनुष्य नहीं ), जहाँ करपोडन पाणिग्रहण में है ( अन्यत्र नहीं ) ॥२।। जहाँ मलिनता-व्रत, तप, नियम और शील गुण से युक्त मुनि की देह पर है (अन्यत्र नहीं) ।।३।। याचना-शिशु बालक-बालिकाओं में है ( अन्य किसी में नहीं)। हे राजन् सुनो ! कृपणता-मधु-मक्खियों के छत्ते में या काल ( यम ) में है ( अन्यत्र नहीं ) ॥४॥ जहाँ पक्षपात पक्षियों के संघ में ही है (अन्यत्र नहीं), लोभयात्रा (तीर्थाटन) का है (वैभव आदि का नहीं), राग-पक्षियों के मुंह में है ( मनुष्यों में नहीं) ।।५।। जहाँ कलह-(द्वन्द ) स्त्री-सहवास में है ( श्रेष्ठ पुरुषों में नहीं )। जहाँ प्रीतम का वियोग नखों के छेदन में है ( स्त्रियों में नहीं) ॥६॥ ग्रहण जहाँ पौर्णमासो के चन्द्र मात्र का होता है (किसी अन्य का नहीं ) मान-भंग-जहाँ पर वस्तु के अनुराग से होता है ( अन्य किसी कारण से नहीं) ।।७।। जहाँ निर्गण इन्द्रधनुष है ( अन्य कोई नहीं), कठिनता ( कड़ापन ) जहाँ स्त्रियों के स्तनों में है ( अन्यत्र नहीं ) |८|| सप्त व्यसनों में कोई एक व्यसन भी नहीं है। जिनेश्वर की परमज्योति-रति को छोड़कर कोई रति ( राग ) नहीं है ।।९।। इस लोक में प्रसिद्ध ऐसा नगरों में प्रधान ऋषभपुर नामक नगर है। वह देवों को भी प्रिय है ॥१०॥ बह वैभव से समद्ध, श्रेष्ठ और पवित्र है। कविजन शब्द और अर्थ से शोभते हैं ।।११।। वह ऐसा प्रतीत होता है मानों देवों के निवास से सुशोभित हो । उसके भवन देव भवन की उपमा को धारण करते हैं ।।१२।। श्रेष्ठ सम्पदा रूपी लक्ष्मी से पृथिवी पर ऐसा प्रतीत होता है मानो इन्द्र का नगर ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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