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________________ ७५ प्रथम परिच्छेद महावीर का समवशरण आया। उसके अतिशय से उपवन भली प्रकार फल गया ।।१०-१२। निर्जल स्थान प्रचुर जल से युक्त हुए। वनपाल का मन ( यह सब ) देखकर हर्षित हुआ ॥१३॥ वहाँ से श्रेष्ठ पवित्र फल-फूल लेकर और राजा के आगे रखकर वह समाचार कहता है ।।१४।। हे राजाधिराज ! कुछ सुनिए विपुलाचल पर भगवान् महावीर का संघ आया है ।।१५।। ऐसा सुनकर राजा ने उसे शीघ्र अनेक वस्त्र और आभूषण देकर संतुष्ट किया ॥१६॥ श्री जिनेन्द्र महावीर के चरणों का भक्त वह राजा सहर्ष सिंहासन से उठा ।।१७।। जिस दिशा में ज्ञान-किरणवाले जिनेन्द्र थे उस दिशा में आगे को ओर सात पद चलकर परमेश्वर महावीर को प्रणाम किया ।।१८।। राजा श्रेणिक के द्वारा परोक्ष में वन्दना की गयी और क्षण भर में आनन्दभेरी बजवाई गयी ।।१९।। आनन्दभेरी के शब्दों से पुरजन शोघ्र जिनेन्द्र की वन्दना, अर्चना, यात्रा और भक्ति हेतु एकत्रित हुए ॥२०॥ राजा चेलना के साथ हाथी पर चढ़कर जहाँ वोतराग ( महावीर ) का समवशरण आया था वहाँ गया ॥२१॥ प्रिया के साथ हाथी से नीचे उतर कर वहाँ उसने समवशरण में प्रवेश किया और जिनेन्द्र महावीर की स्तुति की ।।२२।। घत्ता-सौन्दर्य के प्यासे पुरुषों को जलाशय स्वरूप संवेगातुर राजा युगल रूप से नामोच्चारण करते हुए आकर इस प्रकार कहता है ।।१-९।। [१-१०] राजा श्रेणिक की वीर-वन्दना एवं स्तुति कर्मरूपी सघन बादलों को प्रचण्ड वायु के समान, कामरूपी अग्नि की जलन शान्त करने को बरसने वाले मेघ के समान, विषय रूपी सर्प के विष को दूर करनेवाले, संसार को सार-स्वरूप नहीं माननेवाले, सोलह शृंगार का त्याग करनेवाले, स्वर्ण आदि का त्याग करनेवाले, मारीच की पर्याय में निज भविष्य को जाननेवाले, एक योजन तक पहुँचनेवाली अर्द्धमागधी भाषा-बोलनेवाले, देह की दीप्ति से सूर्य की खदान को जीतनेवाले, अशोक वृक्ष से अलंकृत, तीन छत्र और चँवर-समूह से यश अंकित करनेवाले हे वीर ! आपकी जय हो ।।१-५।। नित्य गन्धोदक की वर्षा होती है। इन्द्र, नरेन्द्र और नागेन्द्र भी नित्य नमस्कार करते हैं। देव पूष्प-वर्षा कर रहे हैं, कुगति-गमन से मन को रोकने में समर्थ धर्मचक्र वाले वीर ! आपको जय हो ॥६-७॥ वे कार्य आपके धन्य हैं जो तीर्थंकरत्व को जन्म देते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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