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________________ प्रथम परिच्छेद ६७ सूर्य-चन्द्र हो ||६-८|| सुख पूर्वक प्रजा का पोषण करने से ऐसा प्रतीत होता था मानों कल्पवृक्ष हो, जैनधर्म को स्थिर रखने और उसकी प्रभावना करने से ऐसा प्रतीत होता था मानो कुवेर हो || ९ || जिसके द्वारा दान और अपने यश से पृथिवी भर दी गयी थी । जिसने अपने सुख के समान सुखों से सुधी और सुजनों का पालन किया || १०|| उसका नाम चौधरी सुधी देवराज था । वह जैनधर्म की निधि था । जैनधर्म का भारवहन करने में धुरन्धर था || ११ || विज्ञान में कुशल, जिनेन्द्र द्वारा भाषित धर्मसूत्रों को जानने वाला, राजकार्यों एवं व्यापार कार्यों में कुशल, गम्भीर, यशागार, बहु गुणज्ञ, राजा के मन को विविध भाँति से आनन्दित करनेवाला, निर्मल परिणाम झासू चौधरी दुसरा सुपुत्र था ॥ १२-१४ || ऋषि और देवभक्त, गृहस्थी का भारवहन करने में धुरन्धर, कमल के समान मुखवाला, नित्य उपकार करनेवाले तीसरे पुत्र का नाम चुगना चौधरी कहा गया है ।। १५-१६ ।। कुल का नाम प्रकाशित करनेवाला, सम्पूर्ण विद्या-विलास का प्राप्तकर्ता, जिनसिद्धान्त रूपी अमृत रस से तृप्त चित्तवाला चौधरी छुट्टा नाम से चौथा पुत्र कहा गया है ।। १७-१८।। धत्ता - जिनमति से सुगोभित ये चार भाई थे | ( इनमें चौधरी ) मतिमान देवराज नाम का बड़ा भाई था । पृथिवी पर अपने कुल का कमलस्वरूप वह नाना प्रकार के सुख-विलास करता हुआ यति जनों का पोषण करता था ।। १-५॥ [ १-६ ] चौधरी देवराज और कवि माणिक्कराज का ग्रन्थ प्रणयन-विषयक विचार-विमर्श दूसरे दिन आगम आदि जिनेन्द्र द्वारा कहे गये ग्रन्थों में दक्ष, सम्यक्त्व रूपो रत्न से अलंकृत हृदयवाला चौधरी देवराज साहु राग-रंजित होकर पैदल ही जिनमन्दिर गया || १२|| वहाँ साहु देवराज ने भावपूर्वक वन्दना की तथा जिन-ग्रन्थों को नमन करने के पश्चात् सरस्वती-भवन में उन्हें सिद्धान्तग्रन्थों के अर्थ को मन से भाते हुए, स्वर रूपी धन से (उपदेश से) पुरजनों को सुखकारी, जिनगुरु के दास माणिकराज दिखाई दिये || ३-५।। माणिक्कराज ने भी — जो बहुश्रुतों की गोष्ठी को प्रकाशित किया करते थे, उसके ( देवराज के ) साथ सम्भाषण किया || ६ || जिनेन्द्र भगवान् की अर्चना के लिए प्रसारित भुजाओं वाले बुधसूरा के पुत्र ( माणिक्कराज ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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