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अमरसेणचरिउ वन्य-पशुओं का न केवल उल्लेख ही किया है अपितु उनके स्वभावों को भी दर्शाया है। सभी प्रसंगों में स्वाभाविक स्थिति चित्रित की गयी है। उपमाओं के द्वारा विषयों को सरस बनाया गया है।
प्रस्तुत रचना कडवक-पद्धति से की गयी है तथा कडवकों में एक घत्ता के योग से सोलह मात्रिक पद्धडिया छन्द व्यवहृत हुआ है।
कृतज्ञता ज्ञापन अमरसेणचरिउ-अप्रकाशित अपभ्रंश ग्रन्थ के आमेर शास्त्र भंडार में होने की जानकारी सर्वप्रथम मुझे आदरणीय डॉ० पन्नालाल जी साहित्याचार्य, सागर से प्राप्त हुई थी। उन्होंने बहुत समय पूर्व अप्रकाशित ग्रन्थों की एक सूची प्रकाशित की थी जिसमें इस ग्रन्थ का भी नाम था । __ विधि का योग है। जैन विद्या संस्थान श्रीमहावीरजी में मेरी नियुक्ति हुई और मुझे आमेर शास्त्र भंडार, जयपुर की पाण्डुलिपियों को देखने का अवसर हाथ लगा । यहाँ अमरसेणचरिउ की पाण्डुलिपि प्राप्त कर अतीव प्रसन्नता हुई।
प्राचीन लिपि के पढ़ने का अभ्यास न होने से आरम्भ में कठिनाई आई किन्तु स्व० मूलचन्द्र जी शास्त्रो श्रीमहावीरजी का सहयोग मिलने से यह कठिनाई भी न रही। धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ा और लिपि भी समझ में आने लगो। श्री शास्त्री जी के सहयोग से एक बार सम्पूर्ण ग्रन्थ पढ़ गया और अर्थ भी लिखा किन्तु अर्थ को अशुद्धियाँ बनी रही। इसी बीच रइधग्रन्थावली भाग एक देखने का अवसर मिला। पीछे दी गयी शब्दानुक्रमणिका देखकर प्रसन्नता हुई। इसकी सहायता से अर्थ को विसंगतियाँ दूर की।
। इसके पश्चात् किया हुआ अनुवाद व्याकरण सम्मत प्रतीत नहीं हुआ अतः तीसरी बार फिर हिन्दी अनुवाद तैयार किया ।
यह सच है कि जब सफलता का योग होता है तव निमित्त भी स्वयमेव मिल जाते हैं। सौभाग्य से जयपुर से विहार कर परम पूज्य आचार्य वात्सल्यमति १०८ श्री विमलसागर जी महाराज ससंघ श्रीमहावोरजो पधारे । उनसे मिलने और दर्शन करने के अवसर मिले। इसी बीच अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी संघस्थ उपाध्याय १०८ श्री भरतसागर जी और आर्यिका स्याद्वादमती माता जी से भी परिचय हुआ। विद्वत्-धमा होने से उनका मुझे स्नेह मिला। वह स्नेह ऐसा पल्लवित हुआ कि उन्होंने मुझे
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