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प्रस्तावना साहित्यिक चर्चाएँ तथा परामर्श करने का अवसर भी दिया। संघ के श्री सोनागिर पहुँचने पर आचार्य श्री के अभिनन्दनग्रन्थ में प्रकाशनार्थ लेख प्रेषित करने हेतु कहा गया । यथा समय लेख भेजकर मैंने गुरु-आज्ञा का पालन किया। इस सबका यह परिणाम हुआ कि मैं संघ का और अधिक स्नेह-पात्र बन गया।
सन्मार्गदिवाकर आचार्य १०८ श्री विमलसागर जी महाराज की हीरक जयन्ती के मांगलिक अवसर पर परम पूज्य ज्ञानदिवाकर उपाध्याय मुनि श्री भरतसागर जी महाराज की सूझ-बूझ और परम पूज्या आर्थिका स्याद्वादमती माता के संकल्प के परिणामस्वरूप ७५ जैन ग्रन्थों के प्रकाशन की योजना निर्मित हुई।
मेरे निवेदन पर अब तक अप्रकाशित अपभ्रंश भाषा की रचना 'अमरसेणचरिउ' को भी योजना में सम्मिलित किया गया। उपाध्याय श्री और आर्यिका माता के इस श्रुत-स्नेह के प्रति मैं विनत भावों से उनके चरणाविन्दों में क्रमशः नमोऽस्तु और वन्दामि निवेदन करता हूँ।
जैन विद्या संस्थान श्री महावीर जी के संयोजक श्री ज्ञानचन्द्र जी 'खिन्दूका' और निदेशक प्रो० प्रवीणचन्द्र जी जैन की सौजन्यता से मुझे 'अमरसेनचरिउ' की फोटो प्रति प्राप्त हुई अतः उनकी इस आत्मीयता एवं सौजन्य के लिए मैं संयोजक और निदेशक महोदयों का हृदय से आभारी हूँ। __परमादरणीय डॉ० दरबारीलाल जी 'कोठिया', बीना, डॉ० पन्नालाल जी साहित्याचार्य, सागर, डॉ० कमलचन्द्र सोमानी, डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर, नागपुर, डॉ० राजाराम जैन, आरा, डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन, नीमच और स्व० श्री मूलचन्द्र जी शास्त्री, श्रीमहावीरजी ने इस कार्य में समय समय पर योग्य परामर्श देकर अनुगहोत किया है। मैं इन विद्वानों के स्नेह पूर्ण मार्गदर्शन के प्रति विनत भावों से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
ब्र० प्रभा पाटनी के पत्रों ने कार्य में उत्साह बढ़ाया है । आलस्य को पास नहीं आने दिया । कार्य शीघ्र पूर्ण करने को तत्परता बनाये रखने में वहिन पाटनी का योगदान स्मरणीय रहेगा। उन्हें मेरा सादर नमन है ।
प्रकाशनमाला के सयोजक ब्र० पं० धर्मचन्द्र जी शास्त्री प्रत्यक्ष और परोक्ष में सदैव प्रेरणा स्रोत रहे हैं। इस योजना में उनका मुझे सदैव सहग मिला है अतः सस्नेह उनका भी मैं आभारी हूँ।
मेरी धर्मपत्नी श्रीमतो पुष्पलता जैन बी० ए., जामाता श्री विनयकुमार एम० ए० ( दमोह ) और पं० हरिश्चन्द्र शास्त्री जैनदर्शनाचार्य,
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