SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ अमरसेणचरिउ ४१. पूर्वकालिक कृदन्त के लिए क्रियाओं में इ, इवि, एइ, एप्पिणु, एविणु, एवि के प्रयोग किये गये । यथा वन्द् <वंद + इ = वंदि १।१० । गम् < जा + इ = जाइ ११९/१८ । ज्ञा - < जाण + इवि = जाणिवि ७|९| ७ | नम्ण + इवि = णइवि १।२२।१७। लभ् < लह + इवि = लहेवि १|१७|१४ | धृदधार + इवि = धारिवि १।१ । च्यव् < चव + एइ = चत्रेइ ७|४|१२ | कृ< कर + एप्पिणु = करेप्पिणु १।१० | दा < द + एप्पिणु = देष्पिणु १।१० | हर्ष हरस + एविणु = हरसेविणु १|७ | धुण < धुण + एवि = धुणेवि ५।२।१८ | पत् < पड + एवि = पडेवि २।५।१८ | ४२. कवि ने ऐसे शब्दों का भी प्रयोग किया है जिनका सम्बन्ध भारतीय स्थापित किया जा सकता है । कुछ शब्द भाषाओं से सरलता पूर्वक निम्न प्रकार हैं लाड ( २|३|१० ) = प्यार | डॉ० राजाराम जैन के अनुसार यह शब्द व्रज, बुन्देली, भोजपुरी, बघेली, मैथिली, अवधी और राजस्थानी बोलियों में आज भी ज्यों का त्यों पाया जाता है ।" बुन्देली बोली के शब्दों को प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रचुरता है । उदाहरणार्थ कुछ शब्द हैं चोर ( १।३।१४ ), झत्ति ( १/९/२० ) = झट ( शीघ्र ) | घण ( १/१२।८ ) = स्तन | लहणा-देणा ( १।१६/९ ) = लेना-देना । मूला (१।१९।४ ) = मूली | सूरण ( १|१९|५ ) | बड़ा ( १|१९|६ ) = दही-बड़ा । अथाण ( १|१९|६ ) अथाना ( अचार ) । = तुरंत ( २१६ ) तत्काल । संझकाल ( ४|११४) संजा ( संध्या ) | घरु दारु ( ४|१|८ ) = घर-द्वार | घर ( ४|३|१७ ) । जिणि (१।१८/१० ) = ही अर्थ में प्रयुक्त जिन शब्द । 11 = आउ ( २१२१४ ) - आयु । आजु ( १।१४।३ ) आज | उजड ( १ - १७।४ ) = ऊजड़ | कउडी ( ५।११ ) कौड़ी | कल्ल ( १।१६।४ ) = कल | १. रइध ग्रन्थावली भाग एक: सोलापुर ई० १९७५ का प्रकाशन, भूमिका पृ० ७२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy