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अमरसेणचरिउ
यहाँ अमरसेन और वइरसेन का युद्ध में विद्यमान उत्साह स्थायीभाव है । अमरसेन की वइरसेन को पराजित करने की चेष्टा उद्दीपन विभाव और वइरसेन आलम्बन विभाव है । अमरसेन की सेना अनुभाव और साहस, गर्व तथा मारने का हेतु देते हुए मारो मारो शब्दोच्चारण करना संचारी भाव हैं । युद्ध में पराजय होने पर सैनिकों का राजा की शरण में जाना, लज्जित होकर तपश्चरण करने वन चले जाना, भगदड़ मच जाना, और इस परिस्थिति में राजा का अकेले ही युद्धभूमि की ओर दौड़ जाना आदि प्रसंग का उल्लेख करके कवि ने युद्ध की स्वाभाविक स्थिति का भी सुन्दर दिग्दर्शन कराया है ।
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भयानक रस : कवि ने वन-वर्णन प्रसंग में वन की स्वाभाविक स्थिति का भली प्रकार चित्रण किया है। वह निम्न प्रकार है-
वहुभूमि चइ वि गय वणि गहणि । जहि कुल- कुलंति तरुवरस-वणि ॥ जहि मणुवण दी सइ सउण तहि । अइ सघणइ तण अंकुर वि जहि ॥ जहि गुंर्जाह सोह भयंकराई । दंतिय चिक्कारहि मइ घणाई i जहि के करंति साओ भमंति । वहु कोल वसुह पुणु पुणु खर्णति ॥ कउसिय सद्दई घू घू करत । वाइसई सद्द तत्थई करत ॥ सद्दल-सीह - चित्ताइ - रोज्झ । गडे-संवर-मिय- महिस लउगा - मज्जारई सेहि कुंज्झ । अइ दुट्ठ जीव कत्थई हरिणहं हरि हारयति । णउलाइ - सप्प-संगरु जहि-भूय-पिसाय संचरंति । डाइणि-साइणि- जोयणि जहिं जमु संकइ गच्छंतएण । किं मणु यण मरहि सरंत एण ॥ [२९१२-२१]
जे
वुज्झ ॥ मणि-विरुज्झ ॥ करंति ॥ भमंति ॥
प्रस्तुत अवतरण में भय स्थायीभाव है । वृक्षों की सघनता एवं स्यार, सिंह, चीता, रोज, गैंडा, साँवर, हरिण, भैंसा, सेही आदि वन - पशुओं का सद्भाव आलम्बन तथा मनुष्यों का अभाव, सिंहों की गर्जना, हाथियों की चिक्कार, सुना कुत्तों का फे-फे करना, वन शूकरों का जमीन खोदना, उलूकों का घू-धू शब्द करना, कौओं का काँव काँव करना, सिंहों का हरिण पकड़ना, सर्प और न्योले का लड़ना, भूत-पिशाच, डाकिनी शाकिनी और योगिनियों का घूमना आदि उद्दीपन भाव हैं ।
अद्भुत रस : स्वर्ग में उत्पन्न जीव के वर्णन प्रसंग में इस रस की निष्पत्ति दिखाई देती है-
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