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प्रस्तावना
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स्मृति और चिन्ता संचारीभाव हैं। इस प्रकार इस अवतरण में करुण रस के सभी अंगों का समावेश किया गया है ।
रौद्र रस : रानी - देवश्री अमरसेन वइरसेन के पराक्रम को न सह सकने से राजा से उनका वध कराने के लिए उनके द्वारा अपने शीलभंग करने का प्रयत्न करने सम्बन्धी मिथ्यारोपण करती है । यह सब सुनकर क्रोधावेग में हुई राजा की रौद्र मुद्रा का कवि ने निम्न पंक्तियों में सुन्दर चित्रण किया है
तं सुणेवि पहु कूरह रुट्ठउ । णउ जाणइ पवंचु पिय झुट्ठउ || हक्कारि विमायंग रउद्दई । कुमरह मारणत्थ खल- खुद्दई | रे मायंगहु परतिय-सत्तहं । अमरसेणि वइसेणि कुपुत्तहं || माहु वे महु चिरावहु । विष्णि वि सिर खुडि महु दिक्खावहु [ २।६।७ - १० ]
यहाँ राजा का रुष्ट होकर क्रोधित होना स्थायीभाव है । अमरसेनवइरसेन आलम्बन और रानी की चेष्टाएँ उद्दीपन भाव हैं । मातंगों को जोरों से बुलाना, कुमारों को मारकर उनके कटे हुए सिरों को दिखाने की उन्हें आज्ञा देना आदि अनुभाव हैं तथा आवेग, असूया, पत्नी- मोह आदि संचारी भाव हैं । कवि की इन पंक्तियों में इस रस की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।
वीर रस : वइरसेन द्वारा वेश्या को गधी बनाये जाने और उसके परिजनों के सुरक्षा हेतु निवेदन करने पर राजा अमरसेन और वइरसेन के बीच हुए युद्ध - प्रसंग से कवि ने वीर रस का उल्लेख किया है
तं णिसुणेविणु णरवइ कुद्धउ । णिय दलु मुक्कउ वइरि विरुद्धउ ॥ ते वयणाय वि कहहि असुद्वहं । मारु मारु पभणेहि विरुद्धहं ॥ तं जंपहि रे पाविय णिग्घिण । कोलवाल किउ मारिउ दुज्जण || तइ किउ लंजिय रासहि कीई । इव सम्पत्ती तुव जम- दूई || सुणिव सेणि सुहउ दुह-वयणई । मारिय जट्टिणी वत्तं सयलाई || के यि गय रवइ सरणई । के लज्जि विगय वण तवयरणई ॥ पडिउ भजाणउ पुरयणु णट्ठउ । णं हरि भीहहिं गय- गणु भट्टउ || पुक्कारंत णरवइ णिसुणेपिणु । सरणाई णववार धरेप्पिणु || धाउ णरवइ सेणु लए विणु
as थिउ अरि जइसिरि संपत्तउ । जम रूवइ धावंतु तुरंतउ ॥ मारु मारु पभणंतु सु कुद्धउ । रे कहि जाहि जमग्गइ लद्धउ ॥
[ ४।१३।११-२१]
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