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________________ प्रस्तावना सणिकुमर - सग्गि ते वे वि जाय । उप्पायसिलाहिं वि जम्मु पाय || विभिय जो कहि ते दस- दिसाई । कोयहं ठाणु वि किं पुण्णयाई || [ २२|१-२] यहाँ स्वर्ग में उत्पन्न होने में विस्मय होना स्थायीभाव, स्वर्ग आलम्बन भाव और उत्पाद शिला पर उत्पन्न होना उद्दीपन भाव है । सम्भ्रमित होना अनुभाव और भ्रान्ति व्यभिचारी भाव हैं । शान्त रस : प्रस्तुत काव्य में इस रस की बहुलता है अमरसेनवइरसेन दोनों भाई वन में एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने के पश्चात् निम्न विचार करते हैं- ते जाणह गच्छह भूमि भाय । ते पय चालहिं णं कु वियराय ॥ संसार असारु विमणि मुणहु । हो लोय हो पुण्णासउ करेहु ॥ जि पावहु सासय पर वि सारु । ण वि जोयहु जें भव-दुहह भारु ॥ [२/९/२४-२६] ४३ इन पंक्तियों में दर्शाये गये अमरसेन वइरसेन के अन्तर्मुखी - परिणाम स्थायीभाव हैं । संसार की असारता का बोध आलम्बन भाव है । पुण्यास्रव और शाश्वत पद की प्राप्ति के भाव उद्दीपन विभाव हैं और सांसारिक दुःख भार के प्रति उदासीनता यहाँ संचारी भाव है । वात्सल्य रस : कवि की इस रचना में वात्सल्य रस का भी समायोजन द्रष्टव्य है माया-पियरहो हु जणं तहं । वियसिय मृदुहुं सयणहिं रंजंतई ॥ करि कराइ जुवहिं णिज्जंतई । वालइ माय-थणे कीलंतइ ॥ [२३८-९ ] यहाँ बालक के प्रति उत्पन्न स्नेह स्थायीभाव है । बालक आलम्बन तथा बालक की क्रीड़ाएँ -- माता के स्तन से खेलना उद्दीपन विभाव हैं । माता-पिता का स्नेह प्रकट करना, स्त्रियों का बालकों को हाथों-हाथों पर रखना अनुभाव और स्वजनों का शिशु मुख देखकर हर्षित होना संचारी भाव है । अलंकार काव्य के मुख्य दो अंग माने गये हैं- शब्द और अर्थ | ये दोनों अलंकारों से विभूषित होकर काव्य की उत्कृष्टता का बोध कराते हैं । दोनों के अलंकार पृथक्-पृथक् होते हैं । प्रस्तुत काव्य में प्राप्त प्रकार हैं अलंकार निम्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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