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प्रस्तावना
२७
रत्न झड़ाने पर गिरानेवाली कथरी, आकाशगामिनी पाँवड़ी और विजय करानेवाली लाठी की प्राप्ति का उल्लेख किया गया है (५।१३।९-१३)।
आराध्यदेव : पण्डित माणिक्कराज ने ग्रन्थ को प्रथम सन्धि के प्रथम कडवक में पूर्व परम्परा का निर्वाह करते हुए सर्वप्रथम वृषभदेव से महावीरपर्यन्त चौबीसों वर्तमान तीर्थंकरों का नामोल्लेख किया है तथा उनकी वन्दना की है। उन्होंने आगे घत्ता में "हव होसहिं धर" कहकर पहले हुए और आगे होनेवाले तीर्थंकरों को भी नमन किया है। उन तीर्थंकरों के नामों का उन्होंने उल्लेख नहीं किया है। पाठकों की जानकारी के लिए उनका उल्लेख कर देना यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है । अतः भूतकाल में हुए तीर्थंकरों के नाम हैं-निर्वाण, सागर, महासाध, विमलप्रभ, शद्धाभदेव, श्रीधर , श्रीदत्त, सिद्धाभदेव, अमलप्रभ, उद्धारदेव, अग्निदेव, संयम, शिव, पुष्पांजलि, उत्साह, परमेश्वर, ज्ञानेश्वर, विमलेश्वर, यशोधर, कृष्णमति, ज्ञानमति, शुद्धमति, श्रीभद्र और अनन्तवीर्य ।
आगामी तीर्थंकरों के नाम निम्न प्रकार हैं-महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयम्प्रभ, सर्वात्मभूत, देवदेव, प्रभोदय, उदक, प्रश्नकीर्ति, जयकोत्ति, सुव्रत, अर, पुण्यत्ति, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयम्भू, अनिवर्तक, जय, विमल, दिव्यपाद और अनन्तवीर्य।
कवि ने तीर्थंकरों को अठारह दोषों से रहित तथा अष्ट प्रातिहार्यों से युक्त बताया है ( १।९।११ ) । आचार्य जिनसेन ने प्रातिहार्यों के नाम इस प्रकार बताये हैं--अशोक वृक्ष, सिर के ऊपर तीन छत्र, सिंहासन, दिव्यध्वनि, दुन्दुभि वाद्य, पुष्पवृष्टि, भामण्डल और चॅमर ।।
अठारह दोषों के नाम हैं--जन्म, जरा, तुषा, क्षधा, विस्मय, अरति, खेद, रोग, शोक, मद, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता, स्वेद, राग, द्वेष और मरण ।
तीर्थंकरों के लिए समवशरण की रचना की जाती है। जहाँ समवशरण होता है वहाँ असमय में फूल विकसित हो जाते हैं ( १।९।१६-१४ ) । १. जिनेन्द्र सिद्धान्त कोश : भाग २, भारतीय ज्ञानपीठ ईसवी १९७१ प्रकाशन,
पृष्ठ ३७६ । २. हरिवंश पुराण : सर्ग ६०, श्लोक ५५८-५६२ । ३. महापुराण : पवं ७, २९३-३०२ ।
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