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प्रस्तावना
और सर को कामदेव के पाँच वाणों का प्रतीक मानकर पांच अंक का बोध कराया है। एक अंक के बोध हेतु यहाँ उन्होंने तीसरी पंक्ति में पृथिवी और चंदु शब्द दिये हैं। इनसे यहाँ यही अर्थ ज्ञात होता है कि विक्रम संवत् के १५७६ वर्ष निकल जाने के पश्चात् विक्रम संवत् १५७९ फाल्गुन सुदी नवमी तिथि चन्द्रवार के दिन शुभ नक्षत्र में यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ था। ___ समर्पण : पूर्ण होने पर कवि ने यह ग्रन्थ साहु जगसी जायसवाल के पुत्र टोडरमल्ल को समर्पित किया था । टोडरमल्ल ने ग्रन्थ हाथों में लेकर उसे अपने सिर पर विराजमान किया था तथा महोत्सव आयोजित करके उसमें उन्होंने कवि को कंकण, कुण्डल और अँगठियाँ तथा अन्य वस्त्राभूषण देकर सम्मानित किया था। कवि ने इस सम्बन्ध में स्वयं लिखा है
टोडरमलहत्थें दिण्णु सत्थु । तं पुण्णु करेप्पिणु एहु गंथु ।। दाणेसेयं सहकर णु त (सो) पि। णिय सिरह चडाविउ तेण गंथु ।। पुणु सम्माणिउ वहु उच्छवेण । पंडिउ चर पट्टहि थविऊ तेण ।। अंगुलियहिं मुद्रिय णिय करेहि । वर वत्थइ कंकण कुंडहिं ।। पुज्जिउ आहरणहि पुणु तुरंतु। हरिरोवि विसज्जिउ विणय वि जुत्तु ।। गउ णिय घरि पंडिउ गंथि तेण । जिण गेह णियउ वहु उत्थवेण ॥ तहि मुणिवर विदहि सुत्या गंथु । दिशणउ गुरहत्थे सिवह पंथु ।'
प्रतिलिपि : इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि का शाहनशाह हुमाऊँ के शासनकाल में विक्रम संवत् १५९२ पौष वदी पंचमी मंगलवार के दिन पालम्ब नगर में जायसवाल अन्वय के भंडारी गोत्र से विभूषित विनय वागेश्वरी सुनखी के पंचमी व्रत-उद्यापन के उपलक्ष्य में उसके तीसरे पुत्र के ज्येष्ठ गुणवान् पुत्र शाह दास ने कराई थी। प्रतिलिपि प्रशस्ति निम्न प्रकार है____ अथ संवत्रारेऽरिमन् श्री नृपतिविक्रमादित्यराज्ये संवत् १५९२ तत्र पोष मासे कृष्णपक्षे पंचम्यां तिथौ भौमवासरे श्री पालंव शभस्थाने श्री पातिसाहि हमाय राज्य प्रवर्त्तमाने श्री कालासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे श्री भट्टारक श्री मलयकोत्तिदेवरतत्पट्टे भट्टारक श्री गुणभद्रदेवास्तत्पट्टे मुनि क्षीमकीत्तिदेवास्तदाम्नाये मुनि श्री धर्मभूषणदेवास्तदाम्नाये ब्रह्मचारी मुनि छाजू तत् शिष्य श्री मुनि ब्रह्मचारि पण्णा एतत् इक्ष्वाकुवंशे श्री गोत्रे
१. वही, पृष्ठ ११५ ।
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