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अमरसेनचरिउ हुआ। यह कारण है कि वह भरत को देखकर अपने पूर्वभव में किये दुराचरण पर पश्चाताप करते हुए शान्त हो गया था। उसने अणुव्रत धारण किये थे और भरत ने तिलक लगाकर उसे मुक्त कर दिया था। नगरवासी उसे खिलाने-पिलाने लगे थे। कुसुमांजलि व्रत के प्रभाव से उसकी जग में प्रसिद्धि हुई और भरत सिद्ध हुए।
मुनि अमरसेन ने राजा देवदत्त को यह भी बताया था कि ग्वाल धनदत्त जिन-पूजा के प्रभाव से मरकर स्वर्ग गया और स्वर्ग से चयकर करकण्डु नामक राजा हुआ । इस प्रकार मुनि अमरसेन से जिनेन्द्र पूजा का माहात्म्य सुनकर राजा देवसेन राजमहल लौटे। अमरसेन और वइरसेन ने घोर तप किया तथा संन्यास मरण करके वे दोनों ब्रह्मस्वर्ग गये । यह भी कहा गया है कि स्वर्ग से चयकर दोनों मनुष्य पर्याय में जन्मेंगे तथा तप करके सिद्ध होंगे।
[ सप्तम सन्धि ] नागसेनचरिउ पण्डित माणिक्कराज की यह दूसरी रचना है। इसकी प्रतिलिपिपाण्डुलिपि आमेरशास्त्र भण्डार श्रीमहावीरजी में है। इसके कुल पत्र एक सौ चौबीस हैं । आरम्भिक दो पृष्ठ नहीं हैं। पत्र दस इंच लम्बे तथा साढ़े चार इंच चौड़े हैं। प्रत्येक पृष्ठ में ग्यारह पंक्तियाँ तथा प्रत्येक पंक्ति में पैंतीस से चालीस तक अक्षर हैं। यह नौ सन्धियों में समाप्त हुआ है। कुल यमक संख्या तीन हजार तीन सौ है । आरम्भ में सम्भवतः कवि ने अपना परिचय लिखा था।
रचनाकाल : प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रशस्ति में इस सन्दर्भ में दिये गये चार यमक द्रष्टव्य हैंलेस मुणीस वि सर अंका ले। विक्कमरायह ववगय काले । फागण चंदिण पखि ससि वालें। पगरह सइ गुणासियउर वालें । सिरि पिरथीचंदुपसायं सुंदरु । णवमी सुह णक्खित्तु सुहव लें ।। सज्जणलोयह विणउ करेप्पिणु । हुउ परिपुण्णु कव्वु रममंदिरु ।'
यहाँ प्रथम पंक्ति में कवि ने लेस शब्द को पड् लेश्याओं का प्रतीक मानकर छः अंक का, मुगीस को सप्तर्षि का प्रतीक मानकर सात अंक का १. प्रशस्ति संग्रह : श्री दि० जन अ० क्षेत्र श्रीमहावोरजो जयपुर ई. १९५०
प्रकाशन, पृष्ठ ११३ । २. वही, पृष्ठ ११५ ।
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