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________________ सप्तम परिच्छेद २६१ अचल-धीरजवान् तथा काम-वाण को नष्ट करने में शुर ( वे दोनों मुनि) निःशल्य होकर पर्वत के शिखर पर स्थित हो जाते हैं ॥९॥ दशों धर्मों को अखण्ड रूप से जानकर और अपने चेतन-गुण का सम्मान करके/ प्रधानता दे करके तथा कर्म की पाप-प्रकृतियों का संहार करके एवं कर्मों के आस्रव-कर्मागमन-द्वार को बन्द करके आयु के रहते पाप-रूपो ग्रहों का अन्त करनेवाले संन्यासपूर्वक मरकर मुनिश्रेष्ठ वीर अमरसेन-वइरसेन पाँचवें ( ब्रह्म ) स्वर्ग गये ॥१०-१३।। ___घत्ता-वहाँ ( स्वर्ग में ) दोनों देवों का मनोज्ञ अप्सराएँ स्वाभाविक आभूषणों से शृंगार करती हैं। वे घंटियों की ध्वनिवाले दिव्यविमान पर चढ़कर तीनों लोक की जिन-प्रतिमाओं की पूजा करते हैं ।।७-९।। [७-१० ] [ अमरसेन-वइरसेन को सिद्ध-पद-प्राप्ति, कवि की आचार्य परम्परा तथा ग्रन्थ रचना करानेवाले श्रावक का उल्लेख ] दोनों राजा ( मनुष्य गति से ) शुभ कर्मों से देव-गति में जावेंगे। देवों के सुखों को भोगने के पश्चात् दोनों भाई वहाँ से ( नर पर्याय में होकर/आकर ) सिद्ध होंगे ॥१-२।। पश्चात् तप बल से दोष रहित होकर अर्हन्त के समान अद्वितीय शुभगति पाते हैं ॥३॥ ऐसा जानकर भव्यजनों को दान दो, अर्हन्त-जिनेन्द्र और आगम में श्रद्धा करो ।।४। यह मूल रूप से जिनेन्द्र महावीर के द्वारा कहा गया और गौतम के द्वारा मुनि सुधर्माचार्य से कहा गया ।।५।। इसके पश्चात् ( सुधर्म मुनि के द्वारा ) केवलो जम्बूस्वामी को प्रकाशित किया गया। उन्होंने नन्दिमित्र से और नन्दिमित्र ने अपराजित मुनि से कहा ॥६॥ अपराजित ने गोवर्द्धन मुनि से और गोवर्द्धन मुनि ने भद्र से तथा भद्र ने भद्रबाहु मुनि से कहा ॥७॥ आचार्य-परम्परा से जिन्होंने दोहन किया उनमें सरि जिनचन्द्र श्रेष्ठ हैं ।।८॥ उनके सूत्रग्रन्थ देखकर कवि-मणि माणिक्क ने ललित अक्षरों और सुन्दर वाणी से यह रचना की ।९।। महणा के पुत्र देवराज की विनय से उपदेश-पूर्वक यह प्रकाशित किया गया ।।१०।। जब तक इस पृथिवी पर सार स्वरूप सूर्य और चन्द्र हैं, पत्नी के साथ वह महणा का पुत्र ( देवराज ) आनन्दित रहे ॥११॥ शास्त्र के सार ( मर्म ) और अर्थ के जानकार विद्वान् लोगों को पढ़ावें ॥१२॥ घत्ता-धरा-धन-धान्य से तृप्त रहे, समय पर मेघ वर्षा करें, कामिनीजन ( स्त्रियाँ ) नाचें, नवों रस झरें और लोक सभी को शरणदायी होवें ॥७-१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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