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सप्तम परिच्छेद
[ ७-६ ]
[ मृदुमति के तिर्यंचगति का बन्ध तथा अभिराम की भरत रूप में उत्पत्ति वर्णन ]
माता-पिता ने सम्पूर्ण गार्हस्थिक सम्पदा उसे सौंप दी और वह ( मृदुमति ) भी हताश होकर वेश्या में मग्न हो गया || १ || घर का प्राप्त सम्पूर्ण धन नाश करके उसको चौर्य प्रवृत्ति में वृद्धि हुई ||२|| धन-धान्य के निर्मित उस दुष्ट, पापी ने चन्द्रपुरी नगरी के राजमहल में प्रवेश किया ||३|| वहाँ वह चोर पटरानी के साथ प्रवद्ध राजा को (यह ) कहते सुनता है ||४|| प्रिये ! रति-सुख और परिग्रह त्याग करके मैं सुप्रभात में ही तपश्चरण लिये लेता हूँ ||५|| रानी ने कहा - हे दीर्घबाहु ! तब तो स्वामी के साथ हो मैं ( भी ) तप ग्रहण कर लेती हूँ || ६ || उनसे ( राजा और रानी से ऐसा ) सुनकर चोर ने वहाँ राजा के साथ महाव्रत धारग करने का नियम किया ||७|| चोर ने उनके साथ सुप्रभात वेला में दीक्षा लेकर शिक्षाव्रतों का पालन किया ||८|| इसके पश्चात् कहीं से आकाशगामी वयोवृद्ध एक मुनि आये ||१९|| ( वे ) योग धारण करके पर्वत के शिखर पर स्थित हो गये । नगर के लोग प्रतिदिन उनके दर्शन करते हैं || १०|| कोई इनके योग की पूजा करते और उनसे ( कहते ) हे यति ! मेरे घर उतरकर भाजन करें | आहार लें ||११|| आकाशगामी वे चारण मुनि योग पूर्ण करके आँख की पलक झपकते ही चले गये || १२ | | उसी समय मृदुमति ने वहाँ आकर चर्चा (आहार) के लिए राजा की नगरी में प्रवेश किया || १३ || सभी लोगों ने - जो ऊँची देहवाले योग से पर्वत पर स्थित थे उन्हें जानकर इन्हें ( मृदुमति को ) आहार दिया || १४ || अज्ञानतावश लोगों के द्वारा वह पूजा गया और उसे दान देकर बार-बार संतुष्ट किया गया ॥ २५ ॥ सुख मानकर मौन पूर्वक स्थित हुए कर्म से उसके द्वारा तिर्यंचगति का बन्ध किया गया || १६ ||
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धत्ता - जिसके द्वारा माया की गयी है वह मुनि ब्रह्म ( ब्रह्मोत्तर) स्वर्ग गया । वहाँ दोनों भाई ( सूर्योदय और चन्द्रोदय ) मिल गये । अभिराम-स्वर्ग से च्युत होकर यहाँ भरत हुआ है । पृथिवी पर ( उनका ) अहर्निश यश रहे ।। ७-६ ॥
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