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________________ २४४ अमरमेणचरिउ केवलणाणु लहि वि मणिसेहरु । कुसुमंजरि वउ पर्याड वि सुहयरु ॥३॥ पुणु कम्महं विणासि सिवि पत्तउ । घणवाहणु तत्थ वि संपत्तउ ॥४॥ तव - अणुसारें । सग्गि गया दुक्किय- दुहारें ॥५॥ रु सारउ । कुसुमंजलि विहाणु भव- हारिउ ॥६॥ एरिसु । णिय सत्तेण गोविज्जइ कय जसु ॥७॥ संसार - महादुहु-खिज्जइ ॥८॥ मयणमजूसस अणु को वि जो पुणु करिही सो विह वेस वयहु उवरि भावण विरइज्जइ । जे घत्ता गय-विवेय दिय सुय वि जह, वय-हले लोग जो पुणु सद्दिट्टिउ आयरई, हुया । Jain Education International किण लहइ सो विगय-भया ॥६- १४॥ इय महाराय सिरि अमरसेणचारिए । चउवग्ग सुकह-कहामयरसेण संभरिए । सिरि पंडियमणि माणिक्कविरइए । साधु महणा - सुय चउधरी देवराज णामं किए । सिरि अमरसेण- वइरसेण पुफ्फंजलि सुकह-पयास वणणं णाम इच्छ-परिच्छेयं सम्मत्तं ॥ संधि ॥ ६ ॥ जो वंदो देववंदो, हयकुसुमसरो, मोहदोसादि मुक्को, जो सारो विस्सयारो हय वि मरणं कोह-लोहादि चुक्को । सो मी सो णिव-सुय तियणं देवराजस्स सुक्खं, जंच्छउ मुत्ती विपत्तं णिय तणु-किहणं सव्व सुक्खं विमुक्खं ॥ ॥ आशीर्वादः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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