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षष्ठम परिच्छेद
[ ६-११ ]
[ कुसुमाञ्जलि व्रत विधि तथा प्रभावती का व्रत -ग्रहण-वर्णन ] जिन - प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराकर पात्रों को सहर्ष धन दान करे ॥ १॥ जो पुस्तक लिखवाकर पृथिवी पर ज्ञान के विचार से यतीश्वरों को देता है, वह भव भव में पण्डित - विद्वान् के रूप में उत्पन्न होता है और केवलज्ञान से विभूषित होता है ॥२- ३॥ अपनी शक्ति के अनुसार कांजी लेकर एकासन अथवा उपवास करे ||४|| ( एकासन अथवा उपवास का ) फल-भाव-शुद्धि के अनुसार होता है। भाव-शुद्धि के बिना व्रत, तप सभी निष्फल हैं ||५|| ऐसा सुनकर कन्या प्रभावती ने पद्मावती को सहायता से प्रसन्नतापूर्वक व्रत ग्रहण किया ||६|| देव - पाँच दिन इस व्रत की साधना करके तत्काल चले गये ||७|| वह प्रभावती भी देवी- पद्मावती को अपनी मृणालपुरी नगरी ले गयी । वहाँ उसे स्थापित करके वह जिनदेव की सेवा के लिए जिनालय गयी ||८|| वहाँ प्रभावती ने परिग्रह - रहित त्रिभुवनचन्द्र नामक श्रेष्ठ ऋषि से अर्हन्त की वन्दना करके तपश्चरण माँगा / महाव्रत लेना चाहा। मुनि के द्वारा तब ज्ञान से वितर्क किया गया ||९-१०|| ( उन्होंने कहा-) हे पुत्री ! भव्य है, भव्यपने का विचार किया है, तुम्हारी आयु निश्चित ही तीन दिन की ( शेष ) है ||११||
घत्ता - पुण्यवान् शीलवती उस कन्या ( प्रभावती) ने ऐसा सुनकर अनसन पूर्वक तप धारण किया और तत्त्वों का अर्थ-चिन्तन तथा जिनेन्द्र का ध्यान करती हुई कायोत्सर्ग में अचल रूप में स्थित हुई ||६-११॥
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[ ६-१२ ]
[ प्रभावती और उसके माता-पिता का स्वर्गारोहण-वर्णन ]
इसके पश्चात् प्रभावती को देखने के अर्थ पिता के द्वारा भेजी गयी विद्या ने तपविधि से उसे च्युत करने का घोर उपसर्गों का प्रयोग किया तो भी वहाँ उसका योग - गुण खण्डित नहीं हुआ ||१२|| संन्यास-पूर्वक मरकर वह अच्युत स्वर्ग में पद्मनाथ नाम का सुहावना देव हुई ||३|| अवधिज्ञान से चिरकालीन वैर को जानने के पश्चात् देव अपने पूर्वभव के मातापिता को संवोधने आया || ४ || उसने पिता को अपना चरित्र बताया और विचलित माता को व्रत दिलाया ||५|| अपने गुरु के पास उनकी चरणवन्दना और निर्मल प्रवर स्तुतियाँ कीं || ६ || लोक में कुसुमांजलि व्रत
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