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षष्ठम परिच्छेद
२२९ रात-दिन मन में चिन्ता करती हुई रहती है ||२|| एक दिन वन में सेठ की पत्नी ने बार-बार नारि-जन्म की निन्दा करते हुए निष्काम, तीन ज्ञान के धारी सुव्रत नामक ऋषि से पूछा || ३-४ || हे स्वामी ! इसमें क्या रहस्य है, क्या कारण है ? ( जो कि यह ) कुटिल - ( मेंढक ) क्षणक्षण मेरे पीछे लगा रहता है ||५|| मुनि के द्वारा उत्तर दिया गया - वह सेठ नागदत्त है । इस जिनभक्त को क्या शारीरिक पीड़ा दी थी ॥६॥ वह आर्त्तध्यान से मरकर मेंढक की देह में उत्पन्न हुआ और तुरन्त अपनों के ( पास ) आया || ७ | स्नेह वश तुझे देखने शरण में आता है, ऐसा जानो ॥ ८ ॥ वह सेठानी भयदत्ता अपने कृत्य पर खेद करती है ( और विचारती है ) हाय ! हाय ! (यह ) उपार्जित कर्मों का संयोग है ॥९॥ हमारे स्वामी ही जाकर मेंढक हुए हैं, ( इस विचार से वह ) मेंढक को सहर्ष घर लाकर उसे जहाँ गहरा पानी था वहाँ रखा तथा जिनेन्द्र के द्वारा कथित धर्म की शिक्षा दी / सिखाया ॥ १०-११ ॥
घत्ता - इस प्रकार उसके घर वावली में रहते हुए एक दिन यहाँ मगध नरेश ( श्रेणिक ) आये । ( उन्होंने ) भव्य जनों को एकत्रित करने के लिए शीघ्र यात्रा- भेरी बजवाई ॥६-२ ॥
[ ६-३ ]
[ मेंढक को जिन-पूजा-फल- प्राप्ति-वर्णन ]
जिन यात्रा - भेरी की आवाज से भव्य लोग सूर्योदय होते ही चले ॥१॥ मेंढक भी जिनेन्द्र के चरणों की पूजा करने के भाव से हर्षित मन से दाँतों के अग्रभाग से कमल-पुष्प को पकड़कर मार्ग में चलते हुए संकीर्णता ज्ञात कर राजा श्रेणिक के हाथी के पैरों में जाकर पिचल गया और बेचारा शुभ भावों से प्राण त्याग करके स्वर्ग में देव हुआ ||२४|| हे राजन् ! इसलिए उसने ध्वजा में मेंढक अंकित कर रखा है । इसने आज भी अच्छा कृत्य ( काम ) किया है ||५|| प्रत्यक्ष देखो विवेक-रहित तिर्यंच मेंढक भी स्वर्ग में देव हुआ || ६ ||
घत्ता -यहीं कोई श्री नाम की ब्राह्मण की पुत्री ने कुसुमांजलि-व्रत लेने के पश्चात् निज मरण करके शीघ्र सुरेन्द्र का पद पाया । इसके पश्चात् तप करके सिद्ध गति को प्राप्त हुई ।। ६-३।।
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