SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ अमरसेणचरिउ एक्क वि वासरि सुव्वय णामें । णाणत्तय-जुत्तो हय-कामे ॥३॥ रिसु-पुच्छिउ वणि-भज्जइ बंदि वि । पुणु पुणु णारिहि जम्मणु-गिदि वि॥४॥ सामिय भेउ लवणु कि कारणि । मुहु पिच्छि वि कुढि लग्गइ खणि-खणि ॥५॥ मुणिणा उत्तु सेठि अहिदत्तहो । वा कि पीडिउ तणु जिणभत्त हो॥६॥ अट्ट-मरि वि भेयत्तणि-पत्तो । उप्पण्णउ णिययाय तुरंतो ॥७॥ णेह-वसें तव सणुमागइ । जाई सरणि मुणेइ सम्मग्गइं ॥८॥ ता सेट्ठिणिय वावार-विसायं । हा-हा कम्म-कित्त संजोयं ॥९॥ कि हमहु णाहु भयउ गय-भेहि । सो ददुर घर आणिय मोहि ॥१०॥ भूरि जलासएण कहिं रक्खिउ । जिणवर-भासिउ धम्मपसिक्सिउ ॥११॥ घत्ता इय णिवसंतहु घरि-वावि तहो, अण्ण-दिवसि पइ मगहाहिव इहु । भव्वहं मेलावय-कारणेण, दाविय जत्ता-भेरि लहु ॥५-२॥ [६-३] जिण-जत्ता-भेरी-रव-वेयं ।भवु-लोउ पुणु चलिउ-उगोयं ॥१॥ दवदुरो वि जिण-पय-अच्चण-मणु। कमल-धरि वि दंतग्गि-मुइय-मणु ॥२॥ मग्गि चलंते संकल जाणे । सेणिय तत्थ गइवि-पय-ठाणे ॥३॥ चप्पिउ पाणहं मुक्कु-वराउ । सुहभावें दिवि देऊ जाऊ ॥४॥ इय मंडकि-धयं कियु सो णिव । तासु वि अज्जपहि अच्छइ कय किव ॥५॥ भेकु वि विगय-विवेउ तिरिक्खो । जायउ सगि देउ पच्चक्खो ॥६॥ घत्ता इह विप्पहु तणुया, मुय णिय पुणुया, कुसुमंजलि वयह लेणचिरु । सुरवर-पउ पावि वि, पुणु तउ भावि वि, सिद्धि-गया णामेण सिरु ॥६-३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy