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अमरसेणचरिउ एक्क वि वासरि सुव्वय णामें । णाणत्तय-जुत्तो हय-कामे ॥३॥ रिसु-पुच्छिउ वणि-भज्जइ बंदि वि । पुणु पुणु णारिहि जम्मणु-गिदि वि॥४॥ सामिय भेउ लवणु कि कारणि । मुहु पिच्छि वि कुढि लग्गइ खणि-खणि ॥५॥ मुणिणा उत्तु सेठि अहिदत्तहो । वा कि पीडिउ तणु जिणभत्त हो॥६॥ अट्ट-मरि वि भेयत्तणि-पत्तो । उप्पण्णउ णिययाय तुरंतो ॥७॥ णेह-वसें तव सणुमागइ । जाई सरणि मुणेइ सम्मग्गइं ॥८॥ ता सेट्ठिणिय वावार-विसायं । हा-हा कम्म-कित्त संजोयं ॥९॥ कि हमहु णाहु भयउ गय-भेहि । सो ददुर घर आणिय मोहि ॥१०॥ भूरि जलासएण कहिं रक्खिउ । जिणवर-भासिउ धम्मपसिक्सिउ ॥११॥
घत्ता
इय णिवसंतहु घरि-वावि तहो,
अण्ण-दिवसि पइ मगहाहिव इहु । भव्वहं मेलावय-कारणेण,
दाविय जत्ता-भेरि लहु ॥५-२॥
[६-३] जिण-जत्ता-भेरी-रव-वेयं ।भवु-लोउ पुणु चलिउ-उगोयं ॥१॥ दवदुरो वि जिण-पय-अच्चण-मणु। कमल-धरि वि दंतग्गि-मुइय-मणु ॥२॥ मग्गि चलंते संकल जाणे । सेणिय तत्थ गइवि-पय-ठाणे ॥३॥ चप्पिउ पाणहं मुक्कु-वराउ । सुहभावें दिवि देऊ जाऊ ॥४॥ इय मंडकि-धयं कियु सो णिव । तासु वि अज्जपहि अच्छइ कय किव ॥५॥ भेकु वि विगय-विवेउ तिरिक्खो । जायउ सगि देउ पच्चक्खो ॥६॥
घत्ता
इह विप्पहु तणुया, मुय णिय पुणुया, कुसुमंजलि वयह लेणचिरु । सुरवर-पउ पावि वि, पुणु तउ भावि वि, सिद्धि-गया णामेण सिरु ॥६-३॥
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