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________________ पंचम परिच्छेद २१५ सुनकर उन्हें सुखकारी दुर्धर महाव्रत दिये ॥३॥ ( दोनों भाई ) देह की शोभा रखनेवाले उज्ज्वल सिर के मुकुट, हाथों के कंगन, कानों के कुण्डल, कमर की करधनी, सुन्दर वस्त्र, पुष्प, मधुर शब्द करनेवाले नूपुर और विद्याओं को पलभर में उतार कर पृथिवी पर वैसे ही त्याग देते हैं जैसे आकाशगामी विद्याधर आकाश मण्डल को क्षण भर में त्याग देते हैं ।।४-६।। शरीर और सांसारिक-भोगों से वे उदासीन हो जाते हैं और दीक्षा ले लेते हैं । धन्य हैं ( वे ) पंच परमेष्ठी का नाम स्मरण करके बिना दुःखी हए सिर के केश उखाड़ते हैं | केश-लोंच करते हैं ।।७-८॥ इसके पश्चात् ( दोनों भाइयों के ) माता-पिता और अन्तःपूर के लोगों ने मनि के पास सुखकारी दीक्षा ली ॥९॥ संसार को असार जानकर अनेक राजाओं और रानियों ने दीक्षाएँ लीं ॥१०॥ इतर जनों के द्वारा मुनि को प्रणाम किया जाकर सम्यग्दर्शन ग्रहण किया गया। दोषों में फंसे हुए किन्हीं लोगों ने आत्म-निन्दा-गर्दा की और मनि को प्रणाम करके गहस्थ के व्रत ग्रहण किये ।।११-१२॥ अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार व्रत और तप ग्रहण करके मुनि को नमस्कार करते हुए सभो शीघ्र चले गये ॥१३।। इस प्रकार मुनीश्वर दोनों भाई निष्काम होकर दोनों प्रकार के तप तपते हैं ।।१४।। घत्ता-वे दुःख रहित मन से दो-दो, तीन-तीन मास के उपवास करते हुए सोते हैं । भव-भ्रमण-दोष को सुखाने हेतु सुखकर अनसन करना मुनि ने प्रथम तप बताया ।।५-१८।। [५-१९] [ अमरसेन-वइरसेन का बाह्य-तपाचरण-वर्णन] मुनि-अमरसेन-वइरसेन आहार-वेला में श्रावक के घर विशुद्ध आहार ग्रहण करते हैं ॥१॥ रसों की गृद्धता का त्याग करके भूख से कम खाना (ऊनोदर | अवमौदर्य ) आगम-भाषित दूसरा तप कहा है ॥२॥ रसनाइन्द्रिय अन्य इन्द्रियों के निरोध का हेतु है। वस्तु-संख्यात्मक उसके भेद हैं ।।३।। चित्त-प्रसार का निवारण करना, धन त्यागना पवित्र तप है ।।४।। घी, दूध, दही, शक्कर आदि प्रमुख द्रव्यों का वे मुनि गर्व रहित होकर नियम लेते हैं ।।५।। वे श्रेष्ठ मुनि छहों रसों को नहीं भोगते । अनिंद्य रसपरित्याग तप यही है ॥६।। वे जहाँ कोई दूसरा भव्य नहीं सोता ऐसे एकान्त स्थान में सोने-बैठने का स्थान देखकर रहते हैं ॥७॥ जहाँ अंग परस्पर में लगते | स्पर्श करते हैं वहाँ सूक्ष्म-जीवों का क्षय होता है ।।८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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