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________________ पंचम परिच्छेद २१३ धर्म दोनों भाइयों ने सुना और वे तपश्चरण पर अनुरागी हुए ॥५॥ जिनके तपश्चरण पर भाव हुए [ ऐसे वे दोनों कुमार ] मुनि को सुरक्षित छोड़कर अपने घर गये ।।६।। परिजनों सहित स्वजन और मित्रों को वे सेवा करते हैं ।।७।। सौतेली माता के कारण कूमारों के हृदय में उत्पन्न शल्य दूर हुई / वे निःशल्य हुए ।।८।। तेज से परिपूर्ण दोनों भाई अपने अपने वाहनों पर आरूढ़ हुए ।।९।। और पुरजनों सहित नगर का मोह त्याग करके ( नगर से ) निकल गये। राज्य का उनके मन में क्षोभ उत्पन्न नहीं होता है ।।१०।। वहाँ वे श्रेष्ठ चारित्र धारण करते हैं। उन्होंने निर्मल मन से अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन किया ।।११।। वे भव्य-नव यौवन, धन, परिजन, स्त्री और मित्र आदि की समस्त चिन्ता छोड़कर, गर्व विहीन, निर्विकार चित्त से अपना नरभव सफल करते हैं ।।१२-१३॥ जो लोभासत्त जीवों को मारते हैं वे हीन ( अपंग ) और जो मिथ्यात्व तथा मदिरा के वशीभूत हैं वे क्षुब्ध होते हैं ॥१४॥ ( जो) माया और मद रूपी रस के वशीभूत हैं, सप्त व्यसनों के भोगी हैं, वे विषम गार्हस्थिक-भार से जलकर निश्चय से क्षब्ध होते हैं ॥१५॥ दीन-पंचेन्द्रियों के विषयों को ही महत्त्व देते हैं अपने चेतन ( आत्मा ) को महत्त्व नहीं देते ( अतः) वे दुःखी होते हैं ॥१६॥ जो सांसारिक लाखों योनियों में भ्रमते हैं वे असंख्य गृहस्थ दुखी दिखाई देते हैं ॥ १७॥ जो दुर्लभ नरभव पाकर सुधर्म नहीं करता इस संसार में वह मनुष्य अजन्मा ही है ।।१८।। आशाओं से कृतार्थ ( रहित ) ये दोनों भाई धन्य हैं, वन्दनीय और प्रशंसनीय हैं ॥१९।। इस प्रकार वन में जाते हुए नगरवासी मनुष्यों के द्वारा उन कुमारों की प्रशंसा ( स्तुतियाँ) की गयीं।।॥ वे माघ मास में पल भर में तपोवन में वहाँ गये जहाँ सारिका-मैना पक्षी कलरव करते हैं ॥२१॥ पत्ता-उस विजन वन में उन्होंने निष्काम, सार स्वरूप मुनिराज को देखकर उनकी वन्दना की । इसके पश्चात् सुन्दर-सुखद वचनों से विनय पूर्वक कहा-हे स्वामी ( हमारी ) उपेक्षा मत करो ॥५-१७।। [५-१८] [ अमरसेन-वइरसेन को दीक्षा एवं परिजनों का व्रत-ग्रहण-वर्णन ] हे मुनिराज ! लोगों को संसार-सागर से पार उतारनेवाली सार स्वरूप हमें दीक्षा दीजिए ॥ १।। तुम्हारे प्रसाद से गृहस्थ मनुष्य दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग करके तप करते हैं ।।२॥ मुनिनाथ ने ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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