SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम परिच्छेद २११ [५-१६ ] [ अमरसेन-वइरसेन के लिए मुनि देवसेन कृत धर्मोपदेश ] परिग्रह-दुर्गति के कारणों को ( उत्पन्न ) करता है ।।१।। परिग्रह का मोही कैसे भी सचेत नहीं होता। वह विविध प्रकार के व्यापार करता है और धन को जोड़ता है ॥२॥ मूल में प्रथम भूल उसकी अज्ञानता है । छिपकली को मुंह में लेकर जैसे सर्प पछताता है-वह न खा पाता है और न उसे छोड़ पाता है ऐसे ही परिग्रही द्रव्य को न ( स्वयं ) भोग पाता है और न पात्र को दे पाता है ।।३-४।। सम्पत्ति का लोभी-पापी ( मनुष्य ) मरकर हृदय के लिए अति कठिन महा दुःखकारी नरकगति में जाता है ।।५।। जो पाँच अणुव्रतों को पालता है वह शिव-वनिता का मुखावलोकन करता है ।।६।। भव्य जन-शुभ गति ( हेतु) चार शिक्षाव्रत और तीन गणव्रतों का पालन करे ॥७॥ मुनि ने सानन्द सम्पूर्ण जिनागम और त्रेसठ-शलाका-पुरुषों का चारित्र कहा ॥८॥ यति ने ( जीवों की) आय और शारीरिक अवगाहना तथा तीनों लोक का प्रमाण खोलकर समझाया ॥९॥ देव, मनुष्य और नारकियों के भेद तथा जिनेन्द्र कथित सभी प्रकट करके कहा ॥१०॥ हे राजाओं के राजा! ऐसा करें जिससे व्रत और तपाचरण के भाव रहें ।।११॥ चतुर्गति के प्राणियों को ज्ञान दें, जिससे शाश्वत् गमन प्राप्त करें ।।१२।। पुत्र, स्त्री, धन, यौवन, सूजन और मित्र शाश्वत् नहीं हैं ।।१३।। जो सून्दर वस्तुएँ दिखाई देती हैं वे इन्द्रधनुष, जल के ववूलों और पानी के बादलों के समान (क्षणभंगुर ) हैं ॥१४॥ घता-जगत के ईश्वर जिनेन्द्र चौबीस तीर्थंकर, कुलकर-वृन्द, फणीन्द्र, मनुष्य, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण, नौ वलभद्र तथा नारकी सभी को पकड़ करके यम ग्रस लेता है ।।५-१६।। [५-१७] । अमरसेन-वइरसेन का आत्म-चिन्तन तथा दीक्षा हेतु निवेदन-प्रस्तुति ] हे राजन् ! हे अमरसेन-वइरसेन सहोदर ! पुद्गल अपना नहीं होता है ।।१।। छहों रसों से पोषित यह शरीर जीव के साथ नहीं जाता है ॥२॥ कुटुम्बी, पुत्र, स्त्री, भवन-कोई भी शाश्वत् नहीं, सभी नाशवान् हैं | नष्ट हो जाते हैं ।।३।। हे राजन् ! निश्चय से जो जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है वही मैंने कहा है ( उसे ) हृदय से जानो ॥४॥ मुनि द्वारा उपदिष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy