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________________ पंचम परिच्छेद १८५ घत्ता - हे राजन् ! उस समय व्यवसाय और सम्पदा से रहित क्या खाता ? सुख में छेद करनेवाली लोभिनी वेश्या मरे । मेरा भेद लेकर उसने अच्छा काम नहीं किया है ।।५-१॥ [ ५-२ ] [ अमरसेन से वइरसेन का वस्तु प्राप्ति वृत्त-कथन-वर्णन ] हे प्रभु ! अर्ध रात्रि के समय मैं जंगल में जाकर सुखपूर्वक ( एक ) देवालय में बैठ गया || १ || उसी समय चोर तीन अनुपम वस्तुएँ अपने तेज से जो सूर्य से मिलती हैं ( वे वस्तुएँ हैं -) कथरी, लाठी और आकाश मैं गमनशील पावली लेकर वहाँ आये ||२३|| इन वस्तुओं के कारण नगरचोर झगड़ते हैं। मैंने मधुर वाणी से चोरों से पूछा ||४|| किस कारण से झगड़ते हो, मुझे बताओ, मैं तुम्हारे दुस्साध्य झगड़े को मिटाता हूँ ॥ ५ ॥ मैं रजनीचर तुम्हारी सहायता करता हूँ, हे भाई ! मुझे सुखपूर्वक रहस्य प्रकट करो || ६ || वे मेरे पास आकर मधुर वाणी से कहते हैं सुनिये ||७|| किसी योगी ने छः मास पर्यन्त साधना की । साधना से सिद्ध हुई सूर्य के समान तेजवान् वह विद्या योगी को मन- इच्छित सम्पूर्ण कार्य ( करनेवाली ) तीन वस्तुएँ देकर अपने स्थान पर चली गयी । वह मिथ्यात्व का पुजारी योगो सन्तुष्ट हुआ ||८-१०|| युद्ध में शत्रु का मर्दन करनेवाली लाठी युद्ध में अजेय है, पावली - आकाश में सूर्य के समान तेज गतिमान है || ११ || कथरी झड़ाने से सूर्य के समान दीप्तिमान् सात सौ रत्न पृथिवी पर गिरते हैं || १२ || हम छह माह योगी के पास अति दुःख-धाम श्मसान में सोये हैं || १३ | | उसी स्थान पर कापालिक को मारकर मन - इच्छित कार्य करने - वाली तीनों वस्तुएँ ले आये हैं || १४ || ये वस्तुएँ तीन हैं और हम ( चोर ) चार हैं । हे स्वच्छ हृदय ! ये बँटवारे में नहीं आती हैं ||१५|| मैंने कहापवित्र वस्तुएँ मुझे दो । मैं सत्य कहता हूँ भली प्रकार आप लोगों में बाँट देता हूँ ||१६|| मुझे वस्तुएँ दी गयीं । मैं पैरों में पावली पहिन करके आधे पल में चला गया और नगर आ गया || १७|| चोर अपना सिर पीटकर पश्चाताप करके बिलखते हुए वहाँ से चले गये || १८ || 1 घत्ता - तुम्हारे मिलन से वंचित रहा किन्तु अपनी कथरी के प्रसाद निधि पाकर भूखा नहीं रहा । इसके पश्चात् व्यभिचारी जनों की स्त्री वेश्या के द्वारा देखा गया और मीठी वाणी से मैं घर ले जाया गया ।।५-२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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