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________________ चतुर्थ परिच्छेद १७५ धत्ता-(वेश्या कहती है-) नेत्रों के लिए सुखकर हे कुमार ! तुझे जीवित पाकर मेरे हृदय में हर्ष उत्पन्न हुआ है। शारीरिक शृङ्गार करें, तुम्हारी पीड़ा का कारण पावली के जाने का पश्चाताप न करें ।।४-१०॥ [४-११] [ वइरसेन का कंचनपुर आगमन वृत्त एवं कामदेव-मन्दिर से साथ में लायी गयी वस्तुओं का वेश्या से कथन ] तुम्हारे जीवित रहने से मुझ वेश्या के मस्तकस्थ मन इच्छित सभी कार्य शीघ्र पूर्ण होंगे ॥१॥ वेश्या उस दुष्ट धूर्त (कुमार) को वचनों से फंसाकर/ग्रसकर सहर्ष घर ले गयी ।।२।। वह कुमार बहुत प्रकार के रति-रस रूपी सुख को स्वेच्छानुसार भोगता है। नगर में घूमता है और युवकों से क्रीडा करता है ।।३।। स्वर्ण-वर्ण के समान शरीरवाला, गम्भीर त्याग से याचकों का मन आनन्दित करता है ।।४।। किसी दूसरे दिन वेश्या ने कुमार से कहा-कैसे आये? मेरे हृदय को कहो ।।५।। वेश्या के वचन सुनकर वइरसेन ( कहता है- ) अर्हन्त ने बाज पक्षी को जो चिड़िया निर्मित को है ( वह उसे प्राप्त होती ही है ) ॥६॥ जिसने समय पर अमित दान किया है पूण्य से उसी के द्वारा कामधेनु का दोहन किया जाता है ॥७॥ अमित जिनेन्द्र की भक्ति, अमित शीतल शभ वचन सुख की निधि हैं ।।८।। गुणियों की गोष्ठियों और परमार्थ करने वाले साधुओं का संग करे ।।९।। इससे भव्य जनों के घर संतोष-प्रदाय शुद्ध सुन्दर दिव्य सम्पदा होती है ।।१०।। जन जन से प्रशंसित, यश और गौरव प्राप्त होता है । वंश में कुलभुषण पुत्र होता है ।।११।। यह सब शुभ कर्मों के करने से होता है, ज्ञानी यतीश्वर ऐसा कहते हैं ।।१२।। इसके पश्चात् वेश्या इससे कहती है-हे भव्य ! कहो-मदनदेव के मन्दिर में कौन द्रव्य प्राप्त हुआ ।।१३।। हे भव्य वइरसेन ! अब मुझे वह सब बताओ जो प्राप्त किया गया हो, जिससे मुझे सुख प्राप्त हो ॥१४॥ हे रमणी ! सुनो ! ( वइरसेन ने कहा ) मैं न देवालय में रहा और न मैंने मदन देवता की आराधना की ॥१५॥ भली प्रकार संतुष्ट हुआ देव मेरे पास आया। उसने कहा-कुमार ! जो तुझे भावे वह वर माँगो ॥१६।। मैंने कहा-यदि संतुष्ट हो ( तो) मुझे द्रव्य देकर सुलभ कराओ और मुझे घर स्थापित करो/पहुँचाओ ।।१७।। कहा भी है-निम्न वचन-भाषी होकर जिसने मनुष्यता का पहले विनाश कर लिया है, मिथ्याध्यानी वह विधिपूर्वक शुद्धमार्ग से नहीं चलता है ।।१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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