________________
१७४
अमरसेणचरिउ
घत्ता
तुहं जीवति पाइय, णयण-सुहाइय,
हरखु उवण्णउ मज्ज्ञु हियइ । वपु सार करिज्जइ, उपच्छित्तिज्जइ, पावलिय
गय
Jain Education International
तुव पीडलई ॥ ४- १० ॥
[ ४-११ ]
तुव जियइ मुद्ध महु सयल कज्ज । सिज्झेसहि मण- इच्छियह सज्ज ॥१॥ तं वयणें लंजिय हरखचित्त । वहु कवलें घर- लिउ दुट्ठ-धुत्त ॥२॥ रइ-रस सुइ-माणइ वहु पयार । हंढइ पुर मज्झहं जुवहं कीर ॥३॥ सोवण्ण-वण्ण-वण्णइं सरीर । मग्गण-मण-रंजइ चायं - गहीर ॥४॥ अण्णहं दिणि लंजिय कुमरु वृत्त । किउ सम्मायउ मह कहि हियत्तु ॥५॥ सा वयणु सुणेपिणु वइरसेणि । जो गिम्मिउ अरहि वि चिडइसे || ६ || पुण्णे वि दुहिज्जइ कामधेणु । अमियं जं समयहं दिष्णु-दाणु ॥७॥ अमियं जिण भत्तिय सुहणिहाणु । अमियं सीयलु जगि सुहवयणु ॥८॥ अमियं गुण- गुट्ठिहि करइ संगु । अमियं साहु-परमत्य-संगु ॥९॥ अमियं घर-संपइ होइ भव्व । अमि तित्तिए सुंदरि सुद्ध - दिव्व ॥१०॥ अमियं कुल-मंडणू पुत्तु-वंस | अमियं जसु गउरउ
जण पसंस ॥११॥
इय होंति सल किय कम्म जुत्त । साहेहि
जईसर
णाणपत्त ॥ १२ ॥
पुणु भइ विद्ध पइ भणिउ भव्वु । कंदप्प-गेह
कह
लछु दव्वु ॥१३॥
मज्झु
भवु ॥ १४ ॥
तं कहि इव वइयरु मज्झु सव्वु । जें संपज्जइ सुहु सुणि रमणिण रह हउं देव गेह । आराहिउ मई कंदप्पु तेह ॥ १५ ॥ सुत्तुट्ठउ सुरु महु पास आउ । वरु मंगि कुमरु जं तुज्झु भाउ ॥ १६ ॥ जइ तुट्टउ मह सुलहु वि करेहिं । महु देहि दव्वु मह (हु) घर -घवेहिं ॥ १७॥ उक्तं च ॥ वह जे नसि माणुसह, नीचे वाया होण । विहि मसज्झी इ चालियां, सुद्धे मारग तेण ॥१॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org