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प्रस्तावना
प्रतिलिपि - काल एवं स्थल
ग्रन्थ की समाप्ति के पश्चात् अन्तिम पत्र में प्रतिलिपि करानेवाले का परिचयात्मक विवरण दर्शाते हुए लिखा गया है कि इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि विक्रम सम्वत् १५७७ वें वर्ष में कार्तिक वदी पञ्चमी रविवार के दिन कुरुजांगल देश के सुवर्णपथ ( सोनीपत ) नगर में की गयी थी प्रतिलिपि करानेवाले श्रावक का नाम बाढू था। वे काष्ठासंघ के माथुरान्वय में पुष्कर गण के भट्टारक श्री गुणकीत्तिदेव के पट्टधर श्री यशकीर्त्तिदेव भट्टारक के शिष्य मलयकोत्तिदेव और प्रशिष्य गुणभद्रसूरिदेव की आम्नाय में अग्रवाल वंश के गोयल गोत्र में उत्पन्न शाह छल्हू और सेठानी करमचंदही के पुत्र थे । उन्होंने इन्द्रध्वज विधान कराया था और उसी समय ज्ञानावरण कर्म के क्षय हेतु इस शास्त्र को लिखवाया था ।
इस अभिलेख में ग्रन्थ लिखने वाले का नामोल्लेख नहीं किया गया है । ग्रन्थ की प्रतिलिपि ग्रन्थ रचना के एक वर्ष आठ माह बाद कराई गयी थी । प्रतिलिपि रोहतक में की गयी थी या रोहतक से ग्रन्थ लाकर सोनीपत में, यह विषय अन्वेषणीय है । यह प्रतिलिपि आमेर शास्त्र भण्डार में प्राप्त होने से यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत प्रतिलिपि सोनीपत से यहाँ लायी गयी थी। संभवतः आमेर में भी भट्टारक गद्दी थी तथा यहाँ के भट्टारक सोनीपत के भट्टारकों की आम्नाय के रहे हैं । यही कारण है कि प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतिलिपि सोनीपत से आमेर लायी जा सकी । ग्रन्थ प्रेरक देवराज चौधरी और प्रतिलिपि करानेवाले शाह वाढू दोनों एक ही अन्वय और गोत्र के थे ।
कवि-परिचय
जैनधर्म-निवृत्ति प्रधान धर्म होने से उसके उपासक साहित्यकार आत्मख्याति से दूर रहे हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना करनेवाले पं० माणिक्कराज ने रचना प्रेरक चौधरी देवराज का जैसा विस्तृत परिचय लिखा है वैसा परिचय उन्होंने अपना नहीं दिया है।
चौधरी देवराज और कवि के पारस्परिक वार्तालाप प्रसंग में ( १/६/५ ) कवि का नाम माणिक्कराज बताया गया है । उनके पिता का नाम ( १/६/७) सुरा था । इनके पिता विद्वान् थे । कवि को चौधरी देवराज ने वुह और पंडिय विशेषणों से सम्बोधित ( ६/६ ) किया है जिससे स्पष्ट है कि कवि विद्वान् थे और पण्डित भी ।
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