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________________ अमरसेनचरिउ तीसरा शब्द है सर। इसका अर्थ है वाण । साहित्य में वाण पाँच माने गये हैं तथा चौथे शब्द धरणि का अर्थ है पृथिवी। यह एक होने से इससे एक अंक का बोध होता है। अंकानां वामतो गतिः--सूत्र के अनुसार ऐसे अंक बायीं से दायीं ओर पढ़े जाते हैं। अतः ऊार कहे चारों अंकात्मक शब्दों का अर्थ है विक्रम सम्वत् १५७६ वर्ष में चैत्र मास के शक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि शनिवार के दिन कृतिका नक्षत्र में यह कति पूर्ण हई थी। स्वर्गीय पं० परमानन्द शास्त्री ने भी इसी काल का उल्लेख किया है, किन्तु डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल ने इसका रचना काल विक्रम सम्वत् १५७९ बताया है जो अगुद्ध प्रतीत होता है। रचना-स्थल इस ग्रन्थ की रचना रुहियास ( रोहतक ) नगर के पार्श्वनाथ जिनालय में हुई थी। लेखक पं० माणिक्कराज इस रचना के समय में रुहियासपुर में ही विराजमान थे। रुहियासपुर के निवासी अग्रवाल चौधरी देवराज ने पार्श्वनाथ मन्दिर में इनसे वार्तालाप किया था और नम्रतापूर्वक इस ग्रन्थ की रचना आरम्भ करने के लिए कहा था। प्रथम सन्धि के छठे कड़वक में इस कथन का तथा सातवें कड़वक म रचना रुहियासपुर में आरम्भ किये जाने का उल्लेख किया गया है। स्वर्गीय पं० परमानन्द शास्त्री ने अपने 'सोलहवीं शताब्दी के दो अपभ्रंश काव्य' शीर्षक लेख में रुहियासपुर को रोहतक से समीकृत किया है तथा बताया है कि वहाँ सोनीपत की भाँति भट्टारकीय गद्दी थी । वहाँ के पंचायती मन्दिर में विद्यमान विशाल शास्त्र-भण्डार को उन्होंने भट्टारकीय परम्परा की स्मृति का द्योतक बताया है । शोध-खोज के प्रसंग में रोहतक में लिखे गये अन्य अपभ्रंश ग्रन्थ भी उनके देखने में आये हैं। इससे उन्होंने वहाँ के शास्त्र भण्डार में अपभ्रंश भाषा के शास्त्रों का संग्रह होने का भी अनुमान लगाया है। यह नगर आज भी धन-जन से सम्पन्न है । अतः विद्वान् शास्त्री जी का ऐसा सोचना तर्क संगत प्रतीत होता है। १. अनेकान्त, वर्ष १०, किरण ४-५, पृष्ठ १६०-१६२, वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, दिल्ली-६ ई० अक्टूबर-नवम्बर १९४९ प्रकाशन । २. प्रशस्ति संग्रह : दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी, जयपुर, अगस्त १९५० ई० प्रकाशन, पृष्ठ १६, २३ । । ३. अनेकान्त : वर्ष १०, किरण ४-५, पृ० १६०-१६२ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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