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प्रस्तावना
४. उ स्वर की मात्रा वर्गों के पीछे तथा नीचे भी संयोजित की
गयी है। ५. दीर्घ ऊ तथा ओ स्वरों के लिए सरेफ उ स्वर का प्रयोग हुआ है। ६. औ स्वर के लिए अउ तथा सरेफ ऊ स्वर व्यवहृत हआ है। ७. ऐ स्वर के लिए अइ का उपयोग किया गया है। ८. ऋ स्वर के स्थान में उ स्वर और रि व्यञ्जन का प्रयोग हुआ है। ९. क्ख और क्क संयुक्त वर्गों के लिए क्रमशः 'रक' और क का प्रयोग
हुआ है। १०. क्ष और ख वर्ण के लिए प वर्ण आया है। ११. संयक्त 'ग्ग' वर्ण के लिए 'ग्न' वर्ण व्यवहृत हआ है। १२. च और व वर्ण के समान अकार लिए है। केवल-चवर्ण में आरम्भ
में गुलाई नहीं है। १३. न व श और प का स्वतन्त्र प्रयोग नहीं हुआ है। १४. झ वर्ण के स्थान में झ और ण के स्थान में ण वर्ण आये हैं।
इनका द्वित्व रूप बनाने के लिए इन वर्गों के बीच में एक आड़ी
या तिरछी रेखा अंकित की गयी है। १५. ब वर्ण के स्थान में व वर्ण ही प्रयुक्त हुआ है। १६. अनुनासिक के स्थान में अनुस्वार प्रयोग में लाये गये हैं। १७. वर्ण के ऊपर एक मात्रा दर्शाने के लिए वर्ण के पूर्व एक खड़ी रेखा का व्यवहार हुआ है।
रचना-काल इस सन्दर्भ में प्रस्तुत ग्रन्थ की सातवीं सन्धि के पन्द्रहवें कड़वक की निम्न तीन पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं
विक्कम राय हुवव गय कालई ।
__लेसु मुणीस वि सरअंकालई ।। धरणि अंक सहु चइत वि मासें ।
__ सनिवारे सुय पंचमि दिवसे ।। कित्तिय णाक्खतें सुह जोयं ।
छुउ पुण्णउ सुत्तुवि (सुह) जोयं ।। इन पंक्तियों में लेखक ने संवत् सूचक अंकों के लिए लेसु, मुणीस, सर और धरणि शब्दों का व्यवहार किया है। इनमें लेसु शब्द का अर्थ हैलेश्या। जैनदर्शन में लेश्याएँ छह होती हैं। मुणीश का अर्थ है-सप्तर्षि ।
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