SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० अमरसेणचरिउ एकाक्षरं स्वभावेन गुणा शिष्यं निवेदयेत् । पृथिव्यां नास्ति तद्रव्यं यद्दत्तान्विरणी भवेत् ॥ २॥ वइणेएं णिसुणिय एह वत्त । अइएण वि जायउ हरिसचित्त ॥१०॥ एं भासिउ एयह अखरु वि देइ । सो इच्छु वि मणुयह गुरु हवेइ ॥११॥ वत्तीसक्खर सिक्खिय मणि? । इहु जायउ मज्झु वि परम इट्ट ॥१२॥ पयवडि वि विसज्जिउ जाहि कत्थ । तुहु मझु गुरु वि संजाउ इत्थ ॥१३॥ गुरु-मारणेण महपाउ होउ। पावेण वि णरएं वसइ सोइ ॥१४॥ पत्ता दाणेण वि एयस लोय वरु, तहु जीविउ उव्वरि यउ। गउ आयासें सवण गुरु, णउ वि धरणिहिं तुरियउ ॥ ३-१२ ॥ [३-१३ ] हो लोयह थी भेउ ण दिज्जइ । थी भेएं दुहरासिहि खिज्जइ ॥१॥ चारुयत्तु वहु आवय पत्तउ । धणु खाइ वि परदेस वि पत्तउ ॥२॥ जसहरु गल कंदलहि वियारिउ । पुणु विस-लड्डुय देविणु मारिउ ॥३॥ गोवईयइ चोरहु आलिंगणु । दिण्णउ अहरुल्लउ खंडिउ पुणु ॥४॥ रत्तादेविए पंगुल णिमित्तु । पिउ तं ति वेढि सरिदहि णिहित्तु ॥५॥ जोइय-कारणि राणी सुरेण । पिउ मारिवि अग्गिहि खविय देह ॥६॥ अवराह चरित्तई को गणई । सो मूढउ जो कलणा कुणई ॥७॥ वीखइय पमुह अवराइ-जाय । ते इह को भणइ हो वि राय ॥८॥ घत्ता इय जाणिवि, मण माणे वि, संसउ मणहिण किज्जइ । हो सेणिय, अरिचिडसेणिय, णउत्थीयहि पत्तिज्जइ ॥ ३-१३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy