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________________ तृतीय परिच्छेद १४९ कह देता है ||४-५ || हे नाथ ! मुझे अपना रूप दिखाइए - ( पत्नी के कहने पर वह कहता है) तुम सहन नहीं कर सकती और उसके द्वारा रहस्य कह दिया जाता है || ६ || पत्नी के विशेष आग्रह से वह सर्प हो गया । उस पत्नी के द्वारा वह देखा जाकर नाग-नाग चिल्लाया गया / पुकारा गया ||७|| मेरा स्वामी नाग है । इसने यह रूप बनाया है। पिता के द्वारा विवाह किया जाकर कुये में फेकी गयी हूँ ॥ ८॥ यह वार्ता सम्पूर्ण नगर में गयी। विनयपूर्वक बुलाया गया गरुड़ आकर वहाँ आया जहाँ पुण्डरीक नाग था । वह चोंच खोलकर किसी को खाते हुए बहुत देश घूमकर बनारस आया और कुये के ऊपर वृक्ष पर स्थित हुआ ||९-११ ॥ | वहाँ पनहारिन के द्वारा इस प्रकार कही गयी वाणी से दियवर की पुत्री का प्रीतम नाग जानकर उससे गरुड ने सम्पूर्ण अर्थ | रहस्य समझ लिया और वह नाग का भक्षण करने को वहाँ गया ॥ १२-१३॥ घता - बेचारे को काँपते हुए पाकर ( गरुड़ ने ) चोंच के आघात से पकड़ लिया । आकाश में जाते हुए ललित अक्षरों से नाग ने उससे बोला / कह। ।।३-११। [ ३-१२ ] [ पुण्डरीक-नाग-मुक्ति-वर्णन ] हे गरुड़ ! अटवी में तक्षक शिला पर फेंक कर और चोंच से आहत करके खाओ || १ || इस कथन से प्रेरित होकर वह गरुड़ भी उसे वहाँ तक्षशिला पर ले गया ||२|| उपकारी ने पक्षिराज से वन में जाकर जब गुप्त वचन कहे ॥३॥ वह कहता है – हे कुल रूपी आकाश के भाई ! जानेवाला वह उत्पन्न होकर जीवे ||४|| कहा भी है-गरुड़ पक्षी के द्वारा ले जाये गये पुण्डरोक नाग ने कहा- जो स्त्रियों को गुप्त भेद कह देता है उसके जीवन का अन्त है || ६ || नाग से ऐसा सुनकर गरुड़ के द्वारा कहा गया - हे विष भोज्य ! इसका रहस्य प्रकट करो | कहो ||५|| उसके द्वारा यथार्थ रूप उदास मन से उसका समस्त अर्थ कह दिया गया || ६ || इसके पश्चात् उसके (नाग) द्वारा सुन्दर-मीठी वाणी से कहा गया कि जिसके द्वारा एक अक्षर देनेवाला भी गुरु नहीं माना जाता है वह दुःखपूर्ण पृथिवी पर श्वान योनि में सौ बार उत्पन्न होता है || ७-८ । इसके पश्चात् वह मातंग के कुल में उत्पन्न होता है और शीत तथा ताप के विविध दुःखों से खीजता है / दुखी होता है ||९|| कहा भी है- एक अक्षर सिखाने वाले को जो गुरु नहीं मानता है वह सैकड़ों बार श्वान योनि में जाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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