SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ अमरसेणचरिउ इह कुरुजंगलि गयपुरि विसालि । पारुक्खि राउ तहिं गीइ-सालि ॥३॥ सुहि रज्जु करते अवहिणाणि । मुणि पुच्छिउ एकइया सुवाणि ॥४॥ किह मरणु हवेसइ मझु णाहं । सुहझाणे असुहें विगय-वाहं ॥५॥ तं सुणि वि जईसरु कहइ सुच्छु । फणि डंकेसइ संपुण्ण अच्छु ॥६॥ मा संसउ किंपि वि करहि मित्त । णउ सरणु को वि कुल कमलमित्त ॥७॥ जिण-वयणु-सरणु जइ धरहि चित्ति । सुहगइ पाविवि फेडहि भवित्ति ॥८॥ घत्ता इय वयणु सुणि वि तें णिव वरिण, अवि भयरु वि जायउ। मिच्छाइट्ठिहु कह-जिण-वयणु, भावइ सुहाय-दायउ ॥३-८॥ [ ३-९] सीसमउ वि मंदिर कारियउ । जल-दुग्गु वि पासहे सारियउ ॥१॥ जलयर-रउद्दणा वाहि रूढु । गच्छइ तत्थ वि आउह अबूढु ॥२॥ णउ खाणु ण एहाणु ण कुइ विणोउ । अहणिसु वद्दइ मणि राय सोउ ॥३॥ एउ विविसउ सि तहु थाण यस्स । वाणइं णव कलियइं देह तस्स ॥४॥ कोरंटियाइं एकइय वुत्तु । पच्छिम रयणिहि किम भउ सचितु ॥५॥ तं सुणि वि भणइ वाणइ विवाय । महु केर परिच्छिय पियस राय ॥६॥ दिणि दिणि कलियइ विणवल्ल देहि । महु पाण-विसउ पूरउ करेहि ॥७॥ इय वीयई कोरंटियई उत्तु । हो वाणइं तुहं करि एम जुत्तु ॥८॥ घत्ता सुपहिल्लई दिणि अणहुल्लियई, णव कलियई तुहु आणहिं । सुवियद्दावी बंधे वि णिरु, सुपहाइं रायहु उववाहं ॥३-९॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy