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तृतीय परिच्छेद
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जो रत्न थे उन्हें धो लेती है ।।२।। उन्हें अपनी गाँठ में बाँधकर अपने घर आकर उस वइरसेन को निर्धन जानकर उससे विरक्त हो जाती है ॥३॥ निश्चय से इसने उसे पहिनने को कुछ नहीं दिया । ( ठीक है ) सौन्दर्य से युक्त होकर भी निर्धन क्या करे ॥४|| कहा भी है-विषधर ( सर्प ) अच्छा है, वेश्या नहीं । सर्प ( के काटे हुए ) को मन्त्र से फूक देते हैं ( वह ठीक हो जाता है किन्तु जो वेश्या के द्वारा डसे गये हैं उन मनुष्यों का मरण ही उपाय है ॥छ ॥ वेश्या की आँखें रोती हैं और मन हँसता है। इस सत्य को हर व्यक्ति जानता है कि वेश्या विरुद्ध लोगों को वैसा ही करती है जैसे करौंत ( लकड़ी को ) काटतो है ।।१।। वेश्या न रूपवान् को महत्त्व देती है न कुलीन को । उसके द्वारा रूपवान् और पुण्यवान् सारहीन के समान ( समझे जाते हैं )। वह जहाँ फल ( लाभ ) होता है वहाँ जाती है ।।२।।
वृद्धा वेश्या ने वइरसेन को घर से निकाल दिया। वह रात्रि में पृथ्वी पर एक निर्जन पूराने स्थान पर गया ।।५।। वह सरोवर पर जाकर मह धोता है और शीघ्र पृथ्वी पर निश्चय से कुल्ला करता है ॥६।। उससे एक रत्न भी नहीं निकलता है [ तब वह ] बार-बार ( कुल्ला ) करता है किन्तु रत्न प्राप्त नहीं होता ॥७।। राजपुत्र तब दुःखी हुआ और सिर पीट कर वह ( अपने ) मधुर भविष्य पर विचारता है ।।८॥ पश्चाताप करते हुए कहता है- ) हाय ! हाय ! विषयासक्त मैंने क्या किया ? वेश्या में आसक्त रहकर और मोह से अन्धे होकर जो मैंने अपना गुप्त भेद वेश्या को दे दिया। इससे वेश्या को रत्न मिले और मेरे हृदय को दुःख मिला ॥९-१०।। द्रव्य के बिना यह मनुष्य क्या करे । उसके बिना मनुष्य पृथिवी पर सुशोभित भी नहीं होता ।।११।। जो प्रतिदिन माँगकर क्षुधा की तृप्ति करते हैं भक्त ( उन ) याचकों का कैसे पोपण करूँगा ॥१२॥ __ घत्ता-प्राण कंठगत हो जाने पर भी पति अपने हृदय का गुप्त भेद स्त्री ( पत्नी) नहीं देवे । ( इसी कारण ) राजा परीक्षित वैरी प्राणियों द्वारा शीघ्र ले जाये गये थे और पुण्डरीक ने नागेन्द्र पर विजय की थी॥३-७॥
[३-८] [ राजा परीक्षित का मरण-निमित्त वर्णन ] ऐसा सुनकर देवराज ने कहा-हे ( पण्डित ) मुझे निर्भय होकर वह कथा कहो ॥१॥ ऐसा सुनकर पंडित हर्षित होते हुए सुखपूर्वक राजा परी
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