SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ अमरसेणचरिउ णिय गंठि वंधि णिय-घर-समाय । तं णिद्धणु जाणि वि भय-विराय ॥३॥ णं इहि पहिणत्थि ण किंचि दत्तु । कि किज्जइ णिद्धण रूव जुत्तु ॥४॥ उक्तं च ॥ वरि विसहरु मा वेसहरु, विसहरु मंत फुरंति । जे वेसाइणि डंकिया, ते णर मरणहं जंति ॥छ॥ अंषिहिं रोवइ मनि हसइ, जणु जाणइ सहु सच्चु । वेस-विरुद्धी तं करइ, जं कट्टइ करवत्तु ॥१॥ न गणेइ रूववंता, ण कुलीणं तेण रूवसु पुण्णं । वेसा-वीसार-सरिसा, जत्थ फलं तत्थ संकमए ॥२॥ णिय घरह णियालिउ वइरसेणि । गउ णिज्जर रयणिहि विद्ध खोणि ॥५॥ तं सरवइ जाइ वि मुहु धुवेइ । कुरला करेइ महि धुवइ वेइ ॥६॥ ण उपलहि रयण पुणु पुणु करेइ । तह इक्कु रयणु णउ णोसरेइ ॥७॥ पुणु भयउ विलक्खी रायपुत्तु । सिरु धुणि वि सचितइ महु भवित्तु ॥८॥ हा हा मइ कि किउ विसयसत्त । मोहंधे लंजिय रइहिं रत्त ॥९॥ जं दिण्णउ वेसहि अप्प गुज्झु । तं पडिउ रयण दुहु हियइ मज्झ॥१०॥ किं किज्जइ मणुए दव्व विणु। ण वि सोहइ तं विणु पुहमि जणु ॥११॥ किउ पोसिज्जहि जायणई भत्त । जे अणुदिणु मंगहिच्छुहि तत्त ॥१२॥ पत्ता तिय गुज्झु ण दिज्जइ, णिय हिय संपइ, जइ पाणइ णिय कंठ गए। जं जीउ पंखि पहु, अरि सत्तुहि लहु, पुंडरीउ णायंदु जए ॥३-७॥ ॥३-७॥ [३-८] इय सुणि भासिउ दिउराजएण । भो सुकह कहहि महु गय-भएण ॥१॥ तं णिसुणि वि पंडिउ उल्लवेइ । पारुक्खि राय सुह कह कहेइ ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy