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________________ अमरसेणचरिउ अपवाई पाउ हरेइ लहु । अतिथिहि सग्गसुर मज्झि पहु ।।१८।। विहलंवइ एवहि सो जि भन्नु । वहु आवइ पडि उद्धरइ भन्तु ।।१९।। सरणागय रक्खइ दिव्व चित्त । तं सुय मंडिय भुवि सुयणु भत्त ।।२०।। पत्ता इत्थंतरि कोरिहि, कोरु भणिउं तहि सामिय वयणु ण भणहिं इहु । सुकूट्ट पव्वहं, गुज्झहं थाणहं दुइ सहकारइ फलेइ तदा ॥११।। [२-१२] विज्जाहर वइयई वे वि सुट्ट । सहसतु दयालई अंव मिट्ठ ॥१॥ आणि वि तं दिज्जहि णिव्वियार । वहु रूवणि विज्जामय वि सार ।।२।। तिणि सायं सेसच्छुह विलाइ । सुहु हवइ वि पुण्णे किंण्ण होइ ॥३॥ तं समयहि खेयर एय राय। पुच्छिउ विज्जाहरु विणय वाय ॥४॥ सहकारह कहि गुणु महु निरत्त । मण संसउ फेडहि एव तत्तु ।।५।। संपज्जइ महु सुहु हियइ तत्तु । तं णिसुणि वि खेयरु वीउ वृत्तु ॥६।। लहु विक्खहं फलु सायइ पवित्तु । जव लग्गि रहेइ उरि णरहं भत्त [त्तु] ॥७॥ दिण दिण णियदंतहं धुवइ जाम । कुव्वंतु करूडा पुहमि ताम ॥८॥ उग्गिलइ पंच सइ [र] रुयण वेइ । सुज्जोदय वेला कम्म जोइ ॥९॥ उक्तं च सम्पदि यस्य न हों, विपदि विषादो रणेपि धीरत्वं । तं भुवनत्रयतिलक, जनयति जननी सुतं विरला ॥१॥ वि गु(रु)ला जाणंति गुण, विरुला पालंति निद्धणो सामी। विरुला परकज्जकरा, परदुक्खेहि दुक्खिया विरला ॥२| वीयहं साहारह जो फलु सावई । सत्तम दिण लहु रज्जु सु पावई ॥१०॥ भुंजइ णिवसिरि अचल सु इच्छहिं । सयल वसुंधर णिव पय सुवहिं ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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