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________________ १२३ द्वितीय परिच्छेद पश्चात् अच्छे कार्य करके उसने देव पर्याय प्राप्त की ।।७-८॥ रत्तादेवी ने पंगुल ( माली ) के निमित्त राजा को पकड़कर और उसे घेरकर जलाया (था) ||१०|| पत्ता-मनुष्यों के मन को मोहनेवाली, सूगति की निरोधिनी दूराचारिणी वह रक्तादेवी स्नेह से अन्धे हुए आसक्त पुरुषों के द्वारा ले जाई जाती है। निश्चय से रति के लोभी क्या नहीं करते हैं ।।२-१०॥ कहा भा है-गंगा की बाल और समुद्र जल का कोई परिमाण नहीं है तो भी बुद्धिमान् ( उसे ) जानते हैं किन्तु महिलाओं के चरित्र को नहीं जानते हैं ।।छ।। [२-११] [ अमरसेन-वइरसेन के सम्बन्ध में यक्ष-दम्पति के विचार ] इस प्रकार अमरसेन को सुनकर वइरसेन उनके कथन का अनुगमन करते हुए कहता है-नियम से यहाँ जिसकी कृपा से हम दोनों पृथिवी पर सुखी हैं वह सौतेली माता हमारी उपकारिणी है ।।१-२।। नगर और ग्राम के लोगों को देखते हो, जिनेन्द्र की वन्दना करें, गुरु को ध्वनि / उपदेश सुनें ।।३।। पथिवो पर दर्जनों और सज्जनों के द्वारा आचरित विविध चरित्र को देखें और जानें/समझें ॥४॥ वहाँ वृक्ष के नीचे) दोनों ने रात्रि में विश्राम किया । दोनों को भली प्रकार से नींद आई ।।५।। सुरक्षा हेतु वइरसेन पहरेदार बना । इसी बीच उस आम्र वृक्ष के निवासी यक्ष और यक्षिणी तोते ( इन भाइयों को देखकर ) निष्कर्ष निकालते हैं कि ये दोनों भाई हैं, क्रीड़ा के लिए बैठे हैं, अत्यन्त रूपवान् हैं, भले सौन्दर्य से इन्होंने कामदेव को पराजित किया है, ये सुहावने और मन-भावन हैं ।।६-८॥ स्त्रो तोते ने अपने प्रीतम तोत से कहा-ये दोनों महान् मनुष्य है, ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे राजा हों ॥९॥ इनकी अनेक प्रकार से भक्ति करें ।।१०।। धर्म के कार्य हे प्रीतम ! सुगति के हेतु हैं। उनसे मनुष्य और देव पद प्राप्त होता है ।।११।। हे प्रीतम ! निश्चय से (ये ) स्वभाव से धार्मिक हैं, अतिथि हुए हैं, ( इन्हें ) दान दो ॥१२।। ऐसा सुनकर तोते ने अपनी प्रिया से कहाहे प्रिये ! निश्चय से हमारे पास द्रव्य नहीं है ॥१३॥ मैं इन भव्य पुरुषों का उपकार करता हूँ। बिना द्रव्य के कोई (भी) अभिमान नहीं करता है ।।१४।। उपकार करते हुए का सभी प्रकार से कोई (भी) उपकार करता है इसमें संशय नहीं है ॥१५॥ लोक में ऐसी विरली हो माता ऐसी सन्तान को जन्म देती है जो अपकारी पर भी ( उपकार ) करता है।।१६।। निश्चय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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