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________________ द्वितीय परिच्छेद ११५ रूपी रत्न के खण्डन में ये न तुम्हारी शंका मानते हैं न निश्चय से स्वजनों की ॥४॥ ये प्रचंड हैं, आपके नगर के बाजार को लूटते हैं, ( इस समय) घोड़ों पर सवार होकर उपवन में क्रीड़ा कर रहे हैं ।।५।। शील खण्डित न करने को बार-बार कह-कह करके ही मैंने अपना शील अभंग रखा है ॥६॥ ऐसा सुनकर क्रूर राजा रूठ गया। वह प्रिया के झूठे प्रपंच को नहीं समझता है ॥७॥ वह कुमारों को मारने के लिए भयावने, दुष्ट, क्षुद्र मातंग को चिल्लाकर बुलाता है और ( कहता है) हे मातंग ! परस्त्री में आसक्त कुपुत्र अमरसेन और वइरसेन को शीघ्र मार डालो, देर मत लगाओ, दोनों के सिर काटकर मुझे दिखाओ ॥८-१०॥ ऐसा सुनकर मातंग मन में विचारता है कि निर्मल शीलवन्त, निर्दोष, पुरजनों के सुखकारी, दीर्घबाहु कुमारों को पाकर कैसे घातूं , कैसे उनका वध करूँ ॥११-१२।। घता-अमरसेन राजा के राज्य का आभूषण, शत्रु के सिर का खंडन करनेवाला, कठिन ( भव-सागर से ) बिना नौका के पार होनेवाला, दुखियों के दुःख को मेटनेवाला, दरिद्रता का नाशक है। इसके समान पृथिवी पर देव या मनुष्य ( कोई नहीं) है ॥२-६॥ ____ कहा भी है-कौए में शुचिता, जुये में सत्य, नपुसक में धैर्य, मद्यपान में तत्त्व-चिन्तन, सर्प में क्षमा, स्त्रियों की काम-वासना में शान्ति, और राजा में मित्रता किसने देखी अथवा सुनी है ॥६॥ [२-७] [कुमार-घात सम्बन्धी मातंग-चिन्तन-वर्णन ] वह राजा बार-बार मातंग से कहता है-हे मातंग ! क्या सोच रहे हो, यहाँ मत रहो ॥१॥ लोगों का मनोरंजन करनेवाले पापकर्मी वे कुमार क्रीड़ा करने घोड़ों पर चढ़कर नन्दन-वन गये हैं ।।२।। शोघ्र जाकर मेरे कुल को अपयश देने में लगे हुए (कुमारों को) मेरी श्याम लगी लकडी मारो ॥३॥ वे सभी मातंग वन गये। ( उन्हें ) राजपुत्र स्वच्छ हृदय दिखाई देते हैं ॥४॥ वे मातंग वहाँ बार-बार मनमें विचारते हैं कि क्या राजा भ्रान्तचित्त-पागल हो गया है ।।५।। निज तेज से जिनके द्वारा सूर्य जीत लिया गया है, राज्य-भार को धारण करनेवाले, सुगति ( मोक्ष ) के वे पथिक राजकुमार हमें मारने के लिए क्यों देते हैं ? ॥६-७।। अथवा (राजा) हमें ( भले ही ) देश से निकाल दे किन्तु राजा के पत्रों को वध के कार्य में नहीं लगाऊँ ॥८॥ राजा के दोनों रत्न नहीं घातते हैं। यदि राजा का वचन रखते हैं तो वे कुमार लौटकर घर कैसे आ सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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