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________________ ११४ अमरसेणचरिउ अइ पयं [ड्ड] लुट्टहि तुव पट्टण । हट्टहि हरि-चडि कोरहि उववण ॥५॥ कहव कहव महु सीलु ण खंडिउ । रक्खिउ मइ णिय सोलु अभंगउ ॥६॥ तं सुणेवि पहु कूरह रुटुउ । उ जाणइ पवंचु पिय झुट्ठउ ॥७॥ हक्कारि वि मायंग रउद्दई । कुमरहं मारणत्थ खल-खुद्दई ॥८॥ रे मायंगहु पर-तिय-सत्तहं । अमरसेणि वइरसेणि कुपुत्तहं ॥९॥ मारहु वेए महुण चिरावहु । विणि वि सिर-खुडि महु दिक्खावहु ॥९॥ चिंतहि मणि मायंग सुणेप्पिणु । णिम्मल सील कुमर स लहइ जणु ॥११॥ तं कहिग्घाय जहिं दोस-चुय । पुरयण सुयाणइं लंव-भुय ॥१२॥ घत्ता णिव रज्जहि मंडण, अरि-सिर-खंडण, दुद्धर अइतरणं अमर । दुहियह-दुहखंडणु, रोर वि हंडणु, इणि सरिसुरु-णर अच्छि धरा ॥२-६।। उक्तं चकाके सौच्यं दूतकारेषु सत्यं, क्लीवे धैर्य मद्यपे तत्त-चिंता। सर्प शांति स्त्री कामेपि सांति, राजा मित्र केन दृष्टं श्रुतं वा ॥छ॥ [२-७] पुणु [स] जंपइ पुणु मायंगहि । रे कि चिंतह रहहु म इहि ॥१॥ हरि-चडि कुमर गए णंदण वण । कोहि पावकम्म रंजहि जण ॥२॥ मारहु वेइ जाइ महु परिहउ । महु कुल अवजस-दिण्णउ पडहउ ॥३॥ गइय सव्व मायंगई ते वणि । दिट्ठइ णिव-णंदण सुच्छमणि ॥४॥ पुणु पुणु चिहि मायंग तहिं । किं राउ-गहिल्लउ हुवउ मणि ॥५॥ णिय तेएं जित्तउ जेण इणि । सुव रज्ज-धुरंधर सुगइ-पंथ । तं किह दिज्जहि हमि मारणत्थ ॥७॥ अह हमह देस-णियालु देइ। णउ जुज्जइ रायहं सुव-वहेइ ॥८॥ णउ घाहि विण्णि वि णिव-रयणु । जइ रक्खइसु जिपहु कहु वयणु ॥९॥ ते फिरि वि समायइसु किय घरि । अच्छे ते रयणि सचित भरि ॥१०॥ ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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