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अमरसेणचरिउ
गय दवु वंसु महि णट्ठयाहं । पाविज्जइ तं पुण्णं कियाहं ॥२१॥ किय पुण्ण पसायं तरइ भउ । किय पुणे संपइ होइ जाउ ॥२२॥ विणु पुण्णे जीउ ण लहइ सुहु । पावेणय पावइ गरुय दुहु ॥२३॥ सुदुहेण वि माणसि गरुव सोउ । संपज्जइ सुच्चहं जाइ खउ ॥२४॥
घत्ता
तहं विणि वि भायर, वय-णिम्मायर,
णिय-णिय-भोयणु सव्वु लहु । मुणि-जुयलहं दिण्णउं, चरु संपुण्णउं,
गय चारण आयास पहु ॥१-२२॥ इय महाराय सिरि अमरसेण चरिए। चउवग्ग सुकहकहामयरसेण संभरिए। सिरि पंडिय मणि माणिक्कवि रइए । साधु महणा-सुय चउधरी देवराज णामंकिए। धण्णंकर-पुण्णंकर धर्म-लाभ, वइराग-भाव, मुणिदान-पयच्छण वण्णणं णाम पढमं परिच्छेयं सम्मत्तं ॥ सन्धि ॥१॥
यः शोभते सकलसाधु जनेषु नित्यं, गंभीर-धीर्य निखिलार्थ गुणैरतीव । श्री जैनशासन समुद्र-विवर्द्धनेन्दुः,
श्रीमान् सदा जगति नंदतु देवराजः॥ इति आशीर्वादः ॥ उक्तं च ॥
हंसा सव्वत्थ सिया, सिहिणो सम्वत्थ चितियं गरुवा । सव्वत्थ जम्म-मरणं, सम्वत्था भोयणेभोयं ॥१॥
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