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________________ प्रथम परिच्छेद जिनका पृथ्वी पर द्रव्य और वंश नष्ट हो जाता है वह पुण्य-क्रियाओं से प्राप्त कीजिए ।।२१॥ किये हुए पुण्य के प्रसाद ( प्रभाव ) से भव्य जीव ( भव-सागर से ) तर जाता है, सम्पत्ति हो जाती है ।।२२।। बिना पुण्य के जीव सूख नहीं पाता । किन्तु पाप से बह दुःख पाता है ।।२३।। दुःख से मन में अतीव सोच-विचार को ( चिन्ता ) प्राप्त होता है और सोच-विचार से ( शारीरिक ) क्षीणता उत्पन्न होती है ।।२४।। पत्ता-उन निर्मल परिणामी दोनों भाइयों ने अपनी-अपनी सम्पूर्ण भोजन-सामग्री से युक्त थाली शीघ्र युगल चारण मुनियों को दे दी। स्वामी ( आहार लेकर ) दोनों चारण मुनि आकाश में चले गये ॥१-२२।। अनुवाद यह महाराज श्री अमरसेन का चरित चारों वर्ग ( वर्ण ) को रसों से भरपूर, सुकथनीय कथाओं से युक्त है। पण्डितमगि श्री माणिक्कवि के द्वारा सेठ महणा के चौधरी देवराज नामधारी पुत्र के लिए रचा गया है । इस ग्रन्थ का धण्णंकर-पुण्णंकर को धर्म-लाभ, उनके वैराग्य-भाव और मुनियों के दान प्रदान का वर्णन करनेवाला प्रथम परिच्छेद पूर्ण हुआ ।। सन्धि ।।१।। जो सम्पूर्ण साधु जनों में गाम्भीर्य, धैर्य, सम्पूर्ण अर्थ और अतोव गुणों से नित्य सुशोभित होता है, श्री जैनशासन रूपी समुद्र की वृद्धि के लिए चन्द्र स्वरूप वह श्रीमान् देवराज संसार में सदैव आनन्दित रहे । यही आशीर्वाद है । कहा भी है हंस सर्वत्र श्वेत और सिंह सर्वत्र चिन्तनीय, तथा बड़ों के समान आचरणशील ( होता है)। जन्म-मरण सर्वत्र है और भोजन में उपभोग्यः पदार्थ सर्वत्र ( हैं) ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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