________________
१०१
प्रथम परिच्छेद
[ १-२२] [धण्णंकर-पुण्णंकर का विश्वकीर्ति मुनि से व्रत-ग्रहण तथा चारण
युगल को आहार-दान एवं पुण्य महिमा ] ऐसा सुनकर दूसरा भाई कहता है-मैं द्रव्य-हीन हो गया हूँ, क्या करूँ ॥१॥ मैं एक कौड़ो भी उत्पन्न नहीं करता हूँ अर्थात् मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं है । हे गुरु ! तीन लोक के स्वामी की मैं कैसे पूजा करूँ, उन्हें कैसे पूर्जे ॥२॥ मुनि ने दूसरे ( इस निर्धन ) भाई से कहा-यति से पापहारी व्रत ग्रहण करो ॥३।। वह भव्य पुरुष यह सुनते ही अति सुखी हआ। उसने चारों प्रकार के आहार ( त्याग) का नियम किया ( लिया ) ॥४। इसके पश्चात् वे दोनों भाई मतिमान् गुरु से कहते हैंदूसरे प्रकार से यह कैसे होता है ? ॥५।। मुनि कहते हैं--इस चातुर्मास में आष्टाह्निक नन्दीश्वर पर्व में पाप-मैल को दूर करनेवाले निर्मल व्रत को कोजिए, जिनेन्द्र की पूजा कीजिए और तप करो ॥६-७।। मुनि से ऐसा सुनकर मन-वचन और काय से वे दोनों भाई अपने गुरु के पास उपवास में बैठ गये ॥८॥ जिसकी आराधना से देव और मनुष्य मोक्ष पाते हैं उस णमोकार मन्त्र को वे दोनों भाई एकाग्रचित्त होकर जपते हैं। मन्त्र की आवृत्ति करते हैं ॥९॥ सूर्योदय होने पर वे दोनों अपने सेठ (अभयंकर ) के साथ गये। उन्होंने स्नान और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल श्वेत वस्त्र धारण करके पाँचों कौड़ियाँ वहाँ ( सेठ को ) देकर तथा सहर्ष ( सेठ से ) सुगन्धित सुन्दर-स्वच्छ फूल लेकर जिनेन्द्रदेव, जिनवाणी और गुरु की पूजा-स्तुति करके सामायिक करने के पश्चात् भोजन का समय होने पर सेठ के साथ वे दोनों भाई पकवान खाने बैठे ॥१०-१३।। सेठानी छहों रसों से युक्त. क्षुधा का दमन करनेवाला भोजन लेकर और ज्ञानी, भव्य उन दोनों भाइयों को लोक में किये अपने पुण्य से परोसकर (भव-सागर से ) पार हो जाती है (भव-सागर से पार होने का बन्ध कर लेती है) ॥१४-१५।। वे निर्मल परिणामी भाई तब विचारते हैं-यदि कोई भी पात्र आकर मिल जाता है तो उनके चरणों की वन्दना करके यह भोजन उन्हें दें ॥१६-१७।। ऐसा चिन्तन कर वे भाई मोक्ष-सुख के समान सुख की उपाय स्वरूप ( सोलह ) भावनाओं को भाते हैं ।।१८। उनके पुण्य से कामजयी तप रूपी तेज से सूर्य स्वरूप दो चारण ऋद्धिधारी मुनि आते हैं ।।१९।। उन सिद्ध यतियों के दर्शनार्थ देव आते हैं। वे गुरुओं को अपने नृप इन्द्र के समान किन्तु यश से पृथक्/भिन्न विचारते हैं/मानते हैं ।।२०।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org