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अमरसेणचरिउ किज्जइ सामायउ तिण्णि-काल। पोसहउवासु किज्जइ सुहाल ॥१७॥ जिणपूण-पहाणु-विलेवणाई ।वंभव्वउ पालइ रउ-हराहि ॥१८॥
धत्ता धम्मु वि दह लक्खणु, सिवपउ दक्खणु,
दाण चउक्कइ दिहिं । सत्तुह दय किज्जइ, गंथ-सुणिज्जइ,
किज्जइ सावय एह विहिं ॥१-२०॥
[ १-२१] ॥ उक्तं च ॥ सो जयउ जेण विहियं, संवच्छर चाउ मासि पटवेसु ।
णिधम्म सावयाणं, जेण पसायेण धम्ममए ॥ छ ।। ॥ दोहा । इउ णिसुणेप्पिणु सुद्धमई विवहारीहि वि तेण ।
तं दुह भायहं कम्मकर, एहाणु कराविउ तेण ।। ॥ यतः ॥ स्नानं नाम मनः प्रसाद जननं दुःस्वप्न-विध्वंसनं,
शौचस्यापतयां मलापहरणं सवर्द्धनं तेजसा । रूपोद्योतकरं सिरसुखकरं कामाग्नि-संदीपनं,
स्त्रीणां मन्मथमोहनं श्रमहरं स्नाने दसेते गुणा ॥ छ ।। एहाणु कराइ वि दुहुबन्धवेहिं । पहराविय वत्थई ससि-समेहि ॥१॥ गउ रयणमइय-वर पडिम जेत्थु । वसु दव्वई गिण्हि वि जो महत्थु ।।२।। जावहिं कम्मकर पुज्जणत्थ । विवहारिय गिएहइ फुल्ल सुत्थ ॥३॥ अद्धे कम्मेरह देइ तत्थ । णउ लइहि भव्व परदत्व-वत्थ ॥४॥ वुज्झइ विवहारिय कि एण लेहु । महु मण अच्चरिउ पुणुसदेहु ॥५।। ते भहिं जस्स हम फुल्ल लेहि । तहु पुण्णु होइ हमि तं ण तेहि ॥६॥ णउ अलिउ वयणु हमि भणिउ लोइ। वज्ज-रइ जिणेसरु-परमजोइ ॥७॥ जो भोयणकाले चरुअ सेइ । तस्स वि सरीरि वहु तित्ति होइ ॥८॥ तहं धम्म-अधम्महं एहु भेउ । जो करइ सु तिप्पइ सुकिय हेउ ॥९॥
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